विक्रमशिला विश्वविद्यालय को कभी किताबों में पढ़ा करता था लेकिन मन आया कि क्यों न एक बार भ्रमण पर निकला जाय।विचार आते ही प्रोग्राम तय किया औऱ अपने परिवार व कुछ बच्चों के साथ निकल पड़े विक्रमशिला देखने।ठंड का असर था औऱ कुहासा छाया था।बावजूद इसके हमलोगों ने हार नही मानी और बिना किसी संकोच के चल पड़े।हमारी गाड़ी कुहासे को चीरती हुई सड़क पर दौड़ती रही। भागलपुर से सीधे सबौर के रास्ते हमलोग कहलगांव की ओर बढ़ते रहे।भागलपुर से 32 किमी दूर एक छोटे से औद्योगिक शहर कहलगांव की ओर जाने वाली सड़क से कठिन संघर्ष करना पड़ा। फिर पुरातत्व स्थल तक पहुंचने के लिए एक और 10 किमी की ड्राइव, जहां कभी विक्रमशिला महाविहार हुआ करता था, जो प्राचीन भारत में शिक्षा के तीन सर्वश्रेष्ठ मंदिरों में से एक था।इस क्षेत्र की बड़ी विशेषता इसकी अपनी खेती-बाड़ी से जुड़ी जड़ें लगी।खेतो में हरी पीली सरसों देखकर मन गदगद हो गया।अरहर की खेत दिखे तो कहीं खेत कटे दिखे, तो कहीं फसल कट रही थी। कहीं-कहीं ट्रेक्टरों में फसल लद रही थी।अभी सब्जी उत्पादन व अन्य आधुनिक तौर-तरीकों से दूर पारम्परिक खेती को देख अपने बचपन की यादें ताजा हो गयी, लेकिन यहाँ के ग्रामीण क्षेत्र में अभी भी वह पारंपरिक भाव जीवंत दिखा। फिर हरे-भरे पेड़ों से अटे ऊँचे पर्वतों व शिखरों को देखकर काफी सुंदर अहसास हो रहा था। हमारी गाड़ी पूरी रफ्तार से गुजर रही थी, हवा में ठंड़क का स्पर्श सुखद अहसास दे रहा था। रास्ते में हरे भरे पेड़ पौधों को देख बहुत अच्छा लगा।घोघा गांव के आस-पास सड़क के दोनों तरफ फैले ईंट–भट्ठों को देखकर तो यही लग रहा था कि पूरे हिन्दुस्तान में ईंटों की सप्लाई यहीं से होती है। ट्रक और ट्रैक्टर–ट्रेलरों ने तो अन्धेरगर्दी मचा रखी थी। अभी शायद इससे भी कुछ कमी पड़ी तो पानी के टैंकरों ने पानी गिराकर कीचड़ की एक मखमली परत बिछा दी थी। शस्य श्यामला कही जाने वाली धरती को धूल और गर्द से भर दिया गया था। मतलब मेरे आने की खुशी में पूरी तैयारी कर ली गयी थी।कहलगाँव पार करने के बाद सिंगल लेकिन ठीक–ठाक गँवई सड़क मिली तो शरीर को थोड़ी राहत मिली और मन को सुकून। गाँवों और खेतों के बीच से गुजरते रास्ते को देखकर लगता ही नहीं कि हम किसी अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के पुरातात्विक स्थल की ओर जा रहे हैं। बाहर के या दूर के कितने लोग इसे देखने आते हाेंगे,कहना मुश्किल है। क्योंकि न तो रास्ता ही सीधा है,न यहाँ पहुँचने का कोई साधन। अपनी गाड़ी न हो तो यहाँ पहुँचना मुश्किल ही नहीं,लगभग असंभव है। पता नहीं कोई ट्रैवेल एजेण्ट इसे अपने पैकेज में शामिल करता होगा कि नहीं। रास्ते के किनारे जगह–जगह पुरातत्व विभाग के कुछ बोर्ड लगे हुए हैं लेकिन बिना रास्ता पूछे यहाँ पहुँचना काफी मुश्किल है।विक्रमशिला मतलब विक्रमशिला के खण्डहर। यहाँ विक्रमशिला नाम का न तो कोई शहर है न गाँव। करीब ढाई घण्टे के बाद हमलोग विश्वविद्यालय पहुंचे।हमने 25 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से टिकट खरीदे।14 साल से नीचे उम्र वालों के लिए ही टिकट फ्री है।टिकट लेकर हमसभी परिसर में प्रवेश किये।गेट से अन्दर प्रवेश करते ही बायीं तरफ संग्रहालय बना हुआ है जबकि थोड़ा सा आगे बढ़कर दाहिनी तरफ उत्खनित क्षेत्र अवस्थित है। मैं उत्खनित क्षेत्र की ओर बढ़ गया। यह एक काफी बड़ा क्षेत्र है जो इस विश्वविद्यालय की तत्कालीन भव्यता को प्रदर्शित करता है। प्रांगण में इसके बारे में जानकारी प्रदान करते कई सूचना–पट्ट लगे हुए हैं।
सबसे लोकप्रिय विषय जिसके लिए विक्रमशिला को दुनिया भर में ख्याति मिली, वह वज्रयान बौद्ध धर्म था, जिसका अभ्यास तांत्रिक उपदेशकों के माध्यम से किया जाता था। यह वह समय था जब भूत-प्रेत विद्या और काला जादू दिन का क्रम बन गया था, जिसने बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म दोनों को प्रभावित किया।किसी भी आधुनिक विश्वविद्यालय की तरह विक्रमशिला में भी एक सीनेट या अकादमिक परिषद थी जो इसके दैनिक मामलों का ध्यान रखती थी। उन दिनों नालंदा और विक्रमशिला के बीच शिक्षकों और छात्रों का आदान-प्रदान आम बात थी। और यह आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि राजा धर्मपाल दोनों संस्थानों के संरक्षक थे।
8 वीं शताब्दी के अंत में जब नालंदा विश्वविद्यालय किसी तरह अपनी चमक खोने लगा था, तब राजा धर्मपाल ने बौद्ध दर्शन और धर्म के अभ्यास और शिक्षण के लिए एक और स्थान स्थापित किया था। इसे ‘विक्रमशिला’ के नाम से जाना जाता है जो अपने आप में एक महान विश्वविद्यालय होने के साथ-साथ प्रार्थना के लिए एक बौद्ध स्तूप भी था।
विश्वविद्यालय पहुंच कर हमलोग विक्रमशिला की भव्यता और सुंदरता को देखकर आश्चर्यचकित हुए। विक्रमशिला में हमलोगों ने तिब्बती मंदिर, मुख्य स्तूप, मनौती पिंड और मुख्य द्वार पर पड़े बड़े-बड़े पत्थर के खंभों को देखा। हमलोगों ने विक्रमशिला संग्रहालय में भी अवशेषों को देखा और जानकारी ली।हमलोगों के साथ बाल संसद की प्रधानमंत्री श्रुति शर्मा भी थी ने कहा, “विक्रमशिला का भग्नावशेष बहुत ही भव्य और लाजवाब है। पहली बार यहां आई हूं और इसकी भव्यता को देखकर आश्चर्यचकित हूं।” शिक्षा मंत्री अंजलि शर्मा ने कहा, “यहां की प्राकृतिक सुंदरता अद्वितीय है।”विक्रमशिला की यात्रा ने हमलोगों को सांस्कृतिक धरोहर के बारे में जानने का अवसर प्रदान किया और उन्हें यहां की भव्यता और सुंदरता का अनुभव करने का मौका मिला।विश्वविद्यालय को खूबसूरत बनाने के लिए इसमें गार्डनिंग भी की गई है। जो देखने में काफी खूबसूरत लगता है। लोग गार्डन में सेल्फियां लेते नजर आते हैं।हम ने भी कई फोटो शूट किए।हजारों बच्चे परिसर में अपने परिजन के साथ आए थे या फिर शिक्षक के साथ।बच्चों से भरा पड़ा था परिसर।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय, बिहार के भागलपुर में स्थित वह प्राचीन अवशेष है, जो हमारी गौरव गाथा को बताता है। कहलगांव के पास अंतीचक के नजदीक है। यहां पास ही गंगा और कोसी नदी का मिलन स्थल है। यहां पवित्र गंगा नदी के उत्तर वाहिनी होने के कारण यह स्थल एक प्रमुख तांत्रिक केंद्र भी था। एक मान्यता यह है कि महाविहार के संस्थापक राजा धर्मपाल को मिली उपाधि ‘विक्रमशील’ के कारण संभवतः इसका नाम विक्रमशिला पड़ा।
मगर एक सवाल हमेशा से कायम है कि नालंदा से ज्यादा विशाल और विद्वानों से भरे विक्रमशिला विश्वविद्यालय को वह ख्याति क्यों नहीं मिल पाई, जो नालंदा विश्वविद्यालय को मिली।वज्रयान और तंत्रयान के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध विक्रमशिला के इतिहास को कहीं-न-कहीं दबा दिया गया।नालंदा के विध्वंस के बाद उसे दोबारा खड़ा करने की कोशिश की गई लेकिन विक्रमशिला अब केवल इतिहास के पन्नों में और ऐतिहासिक धरोहर के रूप में रह गया है।किताबों और जानकारों से बातचीत के आधार पर इस रिपोर्ट में विक्रमशिला के इतिहास के उन पन्नों को पलटने की हम कोशिश करेंगे जिसका जिक्र शायद ही कहीं होता है।विक्रमशिला विश्वविद्यालय उस समय देश का सबसे संपन्न प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय था। यहां के विद्वानों ने दुनिया भर में भ्रमण कर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया, साथ ही भारतीय ज्ञान विज्ञान का परचम दुनिया भर में फहराया। यहां 160 विहार और लेक्चर के लिए अनेकों कक्ष बने हुए थे।
देश के शैक्षणिक, सांस्कृतिक तथा बौद्ध-ज्ञान के प्रमुख केन्द्र के रूप में प्रसिद्धि के कारण यहां दूर दराज से विद्वान आकर शैक्षिक एवं दार्शनिक विषयों पर चर्चा करते थे। बुद्ध ज्ञानपद यहाँ के संस्थापक शिक्षक थे। वारेन्द्र के जेतारी, कश्मीर के रत्नव्रज और शाक्यश्री, बनारस के बागीश्वर, नालंदा के वीरोचन, ओदंतपुरी के रत्नाकर यहां के प्रतिष्ठित आचार्य थे जिनकी आभा-मंडल से यह विहार दीप्त था।
बताया जाता है कि इस विश्वविद्यालय में 6 महाविद्यालय थे और हर एक में एक सेंट्रल हाल- विज्ञान भवन था। हर महाविद्यालय में 108 आचार्य होते थे। हर महाविद्यालय में एक द्वार होता था और वहां पर पंडित होते थे। उस द्वारपंडित के परिक्षण के बाद ही छात्रों को यहां परिसर में प्रवेश मिल पाता था।विक्रमशिला विश्वविद्यालय में करीब तीन हजार छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे। करीब 100 एकड़ में फैला यह पूरी तरह से आवासीय विश्वविद्यालय था। यहाँ बौद्ध धर्म और दर्शन के अतिरिक्त न्याय, तत्त्वज्ञान, व्याकरण आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थीं तथा उनकी जिज्ञासाओं का समाधान विद्वान आचार्यों द्वारा किया जाता था। यहाँ देश से ही नहीं विदेशों से भी विद्याध्ययन के लिए छात्र आते थे।
शिक्षा समाप्ति के बाद विद्यार्थी को उपाधि प्राप्त होती थी जो उसके विषय की दक्षता का प्रमाण मानी जाती थी। पूर्व मध्ययुग में विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अतिरिक्त कोई शिक्षा केन्द्र इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था कि सुदूर प्रान्तों के विद्यार्थी जहाँ विद्या अध्ययन के लिए जाएँ। इसीलिए यहाँ छात्रों की संख्या बहुत अधिक थी। यहाँ के अध्यापकों की संख्या ही 3000 के लगभग थी।लिहाजा विद्यार्थियों का उनसे तीन गुना होना तो सर्वथा स्वाभाविक ही था। इस विश्वविद्यालय के अनेकानेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों की रचना की, जिनका बौद्ध साहित्य और इतिहास में नाम है। इन विद्वानों में कुछ प्रसिद्ध नाम हैं- रक्षित, विरोचन, ज्ञानपाद, बुद्ध, जेतारि रत्नाकर शान्ति, ज्ञानश्री मिश्र, रत्नवज्र और अभयंकर। दीपंकर नामक विद्वान ने लगभग 200 ग्रंथों की रचना की थी। वह इस शिक्षाकेन्द्र के महान प्रतिभाशाली विद्वानों में से एक थे। अब इस विश्वविद्यालय के केवल खण्डहर ही अवशेष हैं।यहां काफी संपन्न पुस्तकालय था। अब यहां विश्वविद्यालय का अवशेष- खंडहर ही बचा है। इस अवशेष को देखकर ही आप इसकी भव्यता और गौरवशाली अतीत का अनुभव कर सकते हैं।
तिब्बत का विक्रमशिला से निकट का सम्बन्ध था और बड़ी संख्या में तिब्बती-विद्वान विक्रमशिला में छात्र थे।
12वीं शताब्दी में यहाँ 3000 छात्रों के होने का विवरण प्राप्त होता है। लेकिन यहाँ के सभागार के जो खण्डहर मिले हैं उनसे पता चलता है कि सभागार में 8000 व्यक्तियों को बिठाने की व्यवस्था थी। विदेशी छात्रों में तिब्वती छात्रों की संख्या अधिक थी। एक छात्रावास तो केवल तिब्बती छात्रों के लिए ही था।
यहाँ से तिब्बत के राजा के अनुरोध पर दिपांकर अतीश तिब्बत गए और उन्होंने तिब्बत से बौद्ध भिक्षुओं को चीन, जापान, मलेशिया, थाइलैंड से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक भेजकर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विद्याध्ययन के लिए आने वाले तिब्बत के विद्वानों के लिए अलग से एक अतिथिशाला थी। विक्रमशिला से अनेक विद्वान तिब्बत गए थे तथा वहाँ उन्होंने कई ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया। विक्रमशिला के बारे में सबसे पहले राहुल सांस्कृत्यायन ने सुल्तानगंज के क़रीब होने का अंदेशा प्रकट किया था। उसका मुख्य कारण था कि अंग्रेजों के जमाने में सुल्तानगंज के निकट एक गांव में बुद्ध की प्रतिमा मिली थी। बावजूद उसके अंग्रेजों ने विक्रमशिला के बारे में पता लगाने का प्रयास नहीं किया।विनाश के बाद इस स्थल को छोड़ दिया गया और यह सदियों तक छिपा रहा। इसकी खोज लक्ष्मीकांत मिश्रा नामक व्यक्ति ने अंतीचक गांव में एक टीला देखकर की थी। उन्होंने मलबे से ईंटें एकत्र कीं और उन्हें पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग को भेज दिया। इसके बाद विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने इस स्थल की खुदाई शुरू की, लेकिन कुछ भी ठोस नहीं मिला। 1962 में पटना विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग ने डीसी वर्मा के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के साथ मिलकर इस स्थान की खोज करने की परियोजना शुरू की। 1969 तक खुदाई जारी रही। एएसआई ने 1972 और 1982 के बीच फिर से खुदाई की। इन दो बड़ी परियोजनाओं से केंद्र में क्रूसिफॉर्म स्तूप वाला एक विशाल चौकोर मठ, एक पुस्तकालय, कई छोटे स्तूप और हिंदू और तिब्बती मंदिर की ढेर सारी मूर्तियां मिलीं।इसके चलते विक्रमशिला की खुदाई पुरातत्त्व विभाग द्वारा 1986 के आसपास शुरू हुआ।
तिब्बत में बौद्ध भिक्षुओं के संगठन का श्रेय दीपांकर श्रीज्ञान को जाता है, जो विक्रमशिला के विद्वान पदमासाम्बा से परिचित थे। उन्हें तिब्बत में इतना सम्मान मिला कि वे अतिसदेव के तुल्य पूज्यनीय हो गए। वे मंजुश्री के अवतार माने जाते हैं और तिब्बत के मठों में पूजे जाते हैं।
सिद्ध-सम्प्रदाय के आचार्य सरहपाद इस महाविहार के कुलगुरु थे। यहाँ प्रधान आचार्य को मुख्य अधिष्ठाता कहा जाता था। विदेशों से आए बौद्ध भिक्षु अपने अध्ययन काल से कुछ समय निकाल कर यहाँ की दुर्लभ व अच्छी-अच्छी पुस्तकों का अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद कर अपने देश ले जाते थे। इस कार्य में उन्हें अधिक-से-अधिक सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं। इस कार्य में यहाँ के विद्यार्थी और शिक्षक बड़े ही लगन के साथ रहते थे। गोपाल द्वितीय के समय में यहाँ से प्राप्त की गई प्रजापारमिता की पाँडुलिपि अभी भी ब्रिटिश-संग्रहालय में सुरक्षित है। तिब्बती-पाँडुलिपियों से यह ज्ञात होता है कि विक्रमशिला-महाविहार में बहुत बड़े-बड़े विद्वान आचार्य के पद पर थे। वे अपनी विद्वता के साथ-साथ अपनी लेखनी के भी धनी होते थे। उनकी लिखी हुई अनेक पुस्तकें थीं। इस महाविहार के विद्यार्थी लेखन-कला में भी प्रवीण होते थे।
उत्खनन में एक ग्रंथाकार का अवशेष भी मिला है जिसे देखने से प्रतीत होता है कि यह ग्रंथागार कभी काफी समृद्ध रहा होगा। भोजपत्र एवं तालपत्र-ग्रंथों को नष्ट होने से बचाने के लिए ग्रंथागार में शीतोष्झा व्यवस्था थी। ग्रंथागार की दो दीवारों के बीच पानी बहा करता था जो तापमान को हमेशा सामान्य बनाए रखता था। इन उपायों को देखने से यही प्रतीत होता है कि इस भवन का निर्माण पुस्तकालय के लिए ही किया गया होगा। इसमें बौद्ध पांडुलिपियों का अच्छा संग्रह था।
महाविहार में आधुनिक एकेडमिक-कौंसिल के समान एक समिति थी जो पुस्तकालयों के कार्यों की देख-रेख करती थी। लामा तारानाथ ने लिखा है कि तुरूष्क आक्रमणकारियों ने इस महाविहार को सुनियोजित तरीक से नष्ट-भ्रष्ट किया। संपूर्ण महाविहार में आग लगा दी गई। मूर्तियों को भी टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़ दिया गया तथा यहाँ के विश्वविख्यात पुस्तकालयों को भी जला दिया गया। तारानाथ के अनुसार तुरूष्क आक्रमणकारियों ने इस महाविहार का विध्वंस कर उसके समीप ही महाविहार की ईटों और पत्थरों से एक किले का निर्माण किया।
अब तक हुए उत्खनन द्वारा प्राप्त भग्नावशेष को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि इसे अत्यंत ही बर्बरतापूर्ण ढंग से ध्वस्त किया गया होगा। मुख्य स्तूप तथा संघाराम के मेहराबदार कमरे और मुख्य-स्थल के बाहर के मंदिरों की विस्तृत खुदाई का श्रेय डॉ॰ बी एस वर्मा को जाता है। डॉ वर्मा ने यहाँ दस साल 1972 से 1982 तक विश्वविद्यालय स्थल में छुपे पुरातात्विक-वस्तुओं का उत्खनन करवाया। खुदाई-स्थल में नीचे उतरते ही तिब्बती धर्मशाला के अवशेष हैं। लगभग 60 फीट लंबे –चौढ़े एक चबूतरे पर स्थित इस खंडहर की दीवारों और पक्की ईंटों के पाए क्षतिग्रस्त हैं। इस खुदाई से तिब्बती विद्वानों द्वारा वर्णित केन्द्रीय चैत्य के सत्यापित हो जाने से महाविहार के प्रायः सभी भवनों का प्रकाश में आना निश्चित हो गया है। यहाँ 50 फीट ऊँचे और 75 फीट चौड़े भवन के रूप में एक प्रधान चैत्य था। भूमि–स्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त हुई है। पूर्वी और पश्चिमी भवन में पद्यासन (पदमासन ) पर बैठे अवलोकितेश्वर की कांस्य-प्रतिमा प्राप्त हुई है। यहाँ अवस्थित स्तूप को देखने से ऐसा मालूम होता है कि कक्षाओं में प्रवेश के लिए यही मुख्य मंडप है। इसकी दीवारों मे चारों ओर टेराकोटा ईंटें लगी हैं जिनकी दशा बहुत खराब है।
स्तूप के चारों ओर टेराकोटा की मूर्तियाँ लगी हैं। इन मूर्तियों में बुद्ध धर्म और सनातन धर्म से सम्बन्धित चित्र बने हैं। खुदाई के दौरान मठ पूर्णरूपेण चतुष्कोणीय है। यह 330 वर्गमीटर में फैला है। इसमें 28 कमरे हैं। इसके अलावा 12 भूगर्भ कोष्ठ बने हैं। इसका प्रयोग चिंतन-कार्य के लिए किया जाता था। केन्द्रीय चैत्य-मीटर ऊँचा है। इसके केन्द्र के चारों ओर विपरीत दिशा के अराधना-गृह में दो प्रदक्षिणा-पथों का निर्माण किया गया है। सभी प्रदक्षिणा पथों के ताखों में मिट्टी के पकाए हुए अनेक देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों, जानवर और अनेक सांकेतिक वस्तुओं का चित्रण पाया गया है। इसके अलावा खुदाई में यहाँ तंत्र-साधना के गुफा भी प्रकाश में आए हैं और वहाँ महाविहार-अंकित एक मुद्रा भी मिली है।
महाविहार के प्रांगण में अब तक दर्जनों प्रकोष्ठों को प्रकाश में लाया जा चुका है। कई जगहों से ईंट निर्मित मेहराबदार कमरों, जिनका उपयोग संभवतः योग साधना के लिए किया गया था, की भी खुदाई की गई है। मुख्य प्रवेश-द्वार के अहाते में दोनों ओर से खुलने वाले चार-चार कमरों की शृंखला पाई गई है। यहाँ प्रथम चरण में चार सीढ़ियों की संरचना, फिर तीन सीढ़ियाँ उसके बाद दो सीढ़ियाँ और दो मीटर के अंतराल पर अंततः एक सीढ़ी की कलापूर्ण बनावट पाई गई है। तिब्बती-स्रोतों के अनुसार यह महाविहार एक विशाल चारदीवारी से घिरा हुआ था और मध्य में महोबोधि का एक विशाल मंदिर बना था। महाविहार प्राँगण के एक भाग में मन्नत स्तूपों की कई शृंखलाएँ पाई गई हैं। इनमें कुछ छोटे तो कुछ मध्यम आकार वाले हैं।
पाल शासक काल में बौद्ध धर्म के तहत तंत्रज्ञान (वज्रयान) का विकास हुआ। पाल सम्राटों ने उदंतपुरी (बिहारशरीफ) संधौन (बेगूसराय), सोमपुर (बांग्लादेश) और विक्रमशिला भागलपुर में तांत्रिक पीठ की स्थापना की थी। विक्रमशिला सबसे बड़ा तांत्रिक केन्द्र था।
विक्रमशिला में तंत्र शाखा के बलि आचार्य और होम आचार्य के प्रावधान थे। इतिहासकार यह मान चुके हैं कि विक्रमशिला में तंत्र की साधना के साथ नरबलि की भी प्रथा थी। नरबलि की प्रथा का केन्द्र विक्रमशिला महाविहार से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर बुधासन झील के पास बाँस के घने जंगलों में स्थित आशावरी देवी स्थान था। विक्रमशिला में निरदेह रचना शास्त्र की भी पढ़ाई होती थी जिसमें अस्त्र का प्रयोग, शल्य क्रिया अन्य वीभत्स कार्यों जैसे क्रियाओं से गुजरना पड़ता था। नरदेह रचना शास्त्र, शाक्त आचार्यों द्वारा दी जाती थी। आशावरी स्थान में बलि प्रदान के बाद मृत शरीर शक्त आचार्यों को सौंप दिया जाता था जो परदेह रचना पर शोध किया करते थे।
बताया जाता है कि स्थापना के 400 वर्ष बाद 1203 ईस्वी में इसे बख्तियार खिलजी नामक मुस्लिम आक्रमणकारी ने ध्वस्त कर दिया था, भव्य पुस्तकालय में आग लगा दी गई थी जिसके बाद यह विश्वविद्यालय खंडहरों के रूप में परिणत हो गया।
कहा जाता है कि यहां और नालंदा विश्वविद्यालय में इतनी पुस्तकें थी कि पूरे तीन महीने तक पुस्तकालय में आग धधकती रही। बख्तियार खिलजी ने यहां अध्ययन करने वाले सभी भिक्षुओं की हत्या करवा दी थी। उसने इसे दुर्ग समझ रखा था और इसी कारण इसे तोड़ा। तबकात्–ए–नासिरी में इसका विवरण दिया गया है,जिसके अनुसार यहाँ के अधिकांश निवासी ब्राह्मण या बौद्ध भिक्षु थे। सभी सिर मुड़ाए हुए थे। इन सबको तलवार के घाट उतार दिया गया। हिन्दू धर्म से सम्बन्धित सैकड़ों पुस्तकें भी थीं,जिन्हें समझाने के लिए मुसलमानों ने बचे हुए अन्य पण्डितों को बुलाया लेकिन कोई भी पण्डित अर्थ को ठीक से न समझ पाया क्योंकि सभी विद्वान मारे जा चुके थे। भारत जो विश्व गुरु कहलाता था उसकी सभ्यता-संस्कृति को खत्म करने के लिए यहां के ग्रंथों को निशाना बनाया गया।
ताज्जुब की बात यह है कि जिस बख्तियार ने विक्रमशिला और नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर डाले उसे आक्रमणकारी के नाम पर बिहार में नालंदा के पास एक रेलवे स्टेशन है- बख्तियारपुर जंक्शन।सब कुछ देखने–समझने के बाद मन में दो मिनट के लिए अवसाद भर गया। आज जो खण्डहर दिख रहा था उसका अतीत बहुत ही गौरवशाली था। इसने सम्पन्न वैभव भी देखा और विपन्न विनाश भी। हम इसकी यादों को सँजो पायें,हमारे लिए यही बहुत है।
विक्रमशिला की यात्रा नवंबर 2004 में स्थापित पुरातत्व संग्रहालय की यात्रा के बिना अधूरी रहेगी। इसमें साइट से खुदाई करके प्राप्त की गई कई अमूल्य कृतियाँ प्रदर्शित हैं। कई बुद्ध मूर्तियों के अलावा, यहाँ लोकनाथ, महाकाल, तारा और अन्य की मूर्तियाँ हैं। हिंदू मूर्तियों में, हमें उमा, गणेश, सूर्य, कुबेर और महिषाशुमारदिनी मिलती हैं। ये सभी मूर्तियाँ पाल कला विद्यालय के अनुसार घुमावदार हैं। उनमें से कुछ काले बेसाल्ट से बनी हैं जो हमेशा चमकती रहती हैं। प्रदर्शन में अन्य सामान में टेराकोटा रूपांकनों, सिक्के, घरेलू बर्तन, पत्थर के शिलालेख, लोहे के तीर, आभूषण, खंजर आदि शामिल हैं।
केंद्र और राज्य सरकार ने इस पर पहले कभी ध्यान नहीं दिया। 2014 में भागलपुर में चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना का वादा किया था। चार अप्रैल 2017 को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी आये थे। उन्होंने यहां के विकास की बातें कही थी। इसके लिए राज्य सरकार से जमीन की रिपोर्ट मांगी गई थी।केंद्र की टीम जमीन का सर्वे करने पहुंची तो 200 एकड़ जमीन परशुरामचक और एकडरा मौजा में चिन्हित कर रिपोर्ट सौंपी गई। फरवरी 2022 में दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय के नए कुलपति प्रोफेसर कामेश्वर सिंह की अध्यक्षता में फिर जांच की गई जिसके बाद परशुरामचक मौजा की जमीन को खारिज कर दिया गया और 215 एकड़ जमीन मलकपुर और अंतीचक में चिन्हित किया लेकिन यहां 50 एससी एसटी के घर हैं लगभग पैंतीस सौ पेड़ है जिससे भू अर्जन में परेशानियां बताई गई।जिसके बाद अब फिर यह मामला अधर में फस गया।केंद्र सरकार ने 500 करोड़ रुपये दे दिए हैं लेकिन जमीन नहीं मिल पाई है।विगत 8 वर्षों से इसकी स्थापना का दौर कागजों में हांफ रहा है।
विक्रमशिला को आज भागलपुर के मूल निवासियों ने भी भुला दिया है। लेकिन इसके गौरवशाली अतीत को देखते हुए, यह हमारी सामूहिक चेतना में एक स्थान पाने का हकदार है। भागलपुर की यात्रा करना ही हमारे लिए पर्याप्त है और मुझे यकीन है कि हम अपने जीवन में कभी भी इस जगह को नहीं भूलेंगे।