
समाजसेविका सह साहित्यकार
मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में महिला जागृति अभियान की पांचवी वर्षगांठ पर वरिष्ठ साहित्यकार खरगोनकर
मालती देशपांडे द्वारा संपादित विधवाओं की दशा पर केंद्रित एक अभूतपूर्व *स्मारिका* का लोकार्पण किया गया, जो नई सदी में विधवाओं से संबंधित मुद्दों पर गहन विचारों को दूर दूर तक प्रवाहित करने में सहायक होगी और समाज को बदलाव के लिए प्रेरित करेगी।
इंदौर प्रेस क्लब स्थित एक रेस्तरां के सभागार में अधिकतम संख्या में मौजूद महिलाओं की मौजूदगी में विचार प्रवाह साहित्य मंच द्वारा आयोजित समारोह में महाराष्ट्र में विधवा प्रथा उन्मूलन आंदोलन के जनक प्रमोद झिंझड़े, वरिष्ठ पत्रकार और समाज कर्मी प्रसून लतांत, इंदौर प्रेस क्लब के मुकेश तिवारी , विचार प्रवाह साहित्य मंच की अध्यक्ष सुषमा दुबे और समाज चिंतक मनीष खरगोनकर ने किया।
स्मारिका को प्रकाशित कर वरिष्ठ साहित्यकार खरगोनकर
मालती देशपांडे
ने सदियों से प्रताड़ित की जा रही विधवाओं के इतिहास में एक अभूतपूर्व कार्य को अंजाम दिया है। उनकी यह कोशिश मध्य प्रदेश में विधवा प्रथा को जड़ मूल से खत्म करने में सहायक होने के साथ एक तरह से बिगुल फूंकने की तरह है।

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स्मारिका के जरिए नई सदी में महाराष्ट्र, गोवा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के बाद अब मध्य प्रदेश में भी विधवाओं के हित में समाज को जरूरी पहल के लिए प्रेरित करने की कोशिश की शुरुआत की गई है।
अरुणा जी ने मुकेश इंदौरी की मदद से देश में विधवाओं की समस्याओं पर केंद्रित इस स्मारिका को निकाल कर साहित्य और समाज के साथ फिल्म व कला के क्षेत्र में विधवाओं की स्थिति को लेकर छाई लंबी चुप्पी को तोड़ा है। स्मारिका उन सभी महिलाओं को समर्पित है, जिन्होंने वैधव्य, संतान हीनता या अन्य किसी भी कारण से धार्मिक और सामाजिक भेदभाव पूर्ण व्यवहार के अपमान के हलाहल का पान किया है। स्मारिका सिर्फ विधवा संबंधी कागजी दस्तावेज भी नहीं है और ना ही कुछ कविताओं और लघु कथाओं का संग्रह भर है। अरुणा जी ने इसके प्रकाशन के पूर्व पिछले तीन दशकों में विधवाओं के जीवन में क्या बदलाव आए हैं से संबंधित एक प्रश्नावली बनाकर उसे व्हाट्सएप पर डाला फिर परिचितों, बहनों और सखियों की मदद से 50 से अधिक स्त्री पुरुषों के जवाब मंगवाए। इनमें वे ग्रामीण और शहरी महिलाएं भी शामिल हैं जिनको लिखना पढ़ना या टाइप करना नहीं आता है, जिनके पास मोबाइल तक नहीं है। इनमें जिनके क्रांतिकारी विचार शामिल किए गए हैं उनमें राधिका इंगले, स्वाति धर्माधिकारी, लतिका पान सारे, अमिता मराठे , वर्षा तारे, अलकनंदा साने, अर्चना पंडित, निर्मला कर्ण, गीता चौबे गूंज वैजयंती दाते , निशा बु दे झा, नीला कारंबेलकर, डॉ सुनीता फडनीस, कल्पना माकोदे,अनीता मिश्रा सिद्धि, सरला मेहता, सुनीता गदाले,प्रिया वरुण तारे, सीमा और इंदु शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
स्मारिका में सभी वर्गों की महिलाओं के जमा किए जवाबों का निचोड़ यही है कि देश में विधवाओं की स्थिति को लेकर सघन चिंतन की जरूरत है। साथ ही इसके लिए बहुत बड़े स्तर पर अनेक कार्यक्रम आयोजित कर लोगों में जागरूकता पैदा करने की भी जरूरत है। समाज से *विधवा* शब्द हटा देना चाहिए, विधवा और सधवा के साथ एक समान व्यवहार होना चाहिए। इसी के साथ * जब विधुर अशुभ नहीं तो विधवा अशुभ कैसे* जैसे भेदभाव वाले अनेक सवाल भी खड़े किए गए हैं।
इस मौके पर ईश्वर चंद्र विद्यासागर, राजा मोहन राय, महर्षि बर्बे और डॉ आंबेडकर सहित स्मारिका के पहले अंक की संपादक मालती दुबे को याद करते हुए खरगोनकर
मालती देशपांडे ने कहा कि हम आज इस बात को नकार नहीं सकते कि महिलाएं सभी क्षेत्रों में आगे हैं। वे सर्वोच्च पदों पर आसीन हैं लेकिन यह कड़वा सच है कि आज भी एक सामान्य विधवा को अन्याय, शोषण, भेदभाव और वर्जनाओं का सामना करना ही पड़ता है। ये महिलाएं शिक्षित, आत्म निर्भर महानगरों में रहने वाली हैं। ग्रामीण महिलाओं की स्थिति और भी चिंताजनक है । संपत्ति से बेदखल करना, टोना टोटका करने का आरोप लगाकर डायन और चुड़ैल घोषित करना, मारपीट कर गांव से बाहर करना, बहाने से किसी अनजान जगह ले जाकर छोड़ देना आदि बातें आम हैं। इसके लिए महिलाओं को संगठित रूप से आवाज उठाने, पीड़ित महिला के साथ खड़े होकर उसका समर्थन करना आवश्यक है, क्योंकि महिलाओं को कष्ट देने वाले लोग और महिलाएं संगठित होते हैं परंतु विधवा अकेली होती है। इस स्थिति के लिए और उसके सवालों के प्रति समाज का तटस्थ और उदासीन रवैया भी एक बहुत बड़ा कारण है।
महाराष्ट्र से आए प्रमोद झिंझड़े ने महाराष्ट्र में तीन साल पूर्व शुरू हुए विधवा प्रथा उन्मूलन आंदोलन की शुरुआत की चर्चा करते हुए कहा कि विधवा के हित में देश भर के लिए एक केंद्रीय कानून बनाने की जरूरत है इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानूनविदों की एक समिति गठित करने की प्रक्रिया चल रही है।
पत्रकार प्रसून लतांत ने कहा कि विधवा की समस्या गंभीर होते हुए भी अदृश्य रहती है। समाज इसे एकदम अ परिवर्तनशील मानते हुए बदलाव की पहल करने के लिए उत्साहित नहीं होता है। साहित्य, फिल्म और कला के क्षेत्रों में इस विषय की गंभीरता पर ध्यान नहीं दिया जाता है। इनके अलावा मुकेश तिवारी, सुषमा दुबे, वामन बाबले , शीला और अश्विन खरे ने भी अपने विचार जाहिर कर महिलाओं का हौसला बढ़ाया। कार्यक्रम का बखूबी संचालन आरती दुबे ने किया।