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सिंहेश्वर मेला और महोत्सव में जिला प्रशासन की उदासीनता लापरवाही की प्रकाष्ठा : राठौर

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मधेपुरा/उत्तर बिहार के देवघर कहे जाने वाले सिंहेश्वर मंदिर की लचर व्यवस्था,मेला में लापरवाही व सिंहेश्वर महोत्सव में स्थानीय लोगों की मांग की उपेक्षा पर वाम छात्र संगठन एआईवाईएफ जिला अध्यक्ष हर्ष वर्धन सिंह राठौर ने मुख्यमंत्री ,पर्यटन मंत्री सह उप मुख्यमंत्री व पर्यटन विभाग के निदेशक को पत्र लिख जिला प्रशासन मंदिर प्रबंधन की शिकायत की है।

लिखे पत्र में राठौर ने कहा कि सिंहेश्वर मंदिर जहां इस क्षेत्र की धार्मिक,आर्थिक  व सामाजिक पहचान की धुरी है वहीं यहां लगने वाला मेला सोनपुर मेला के बाद सबसे बड़े मेलों में शुमार किया जाता है और इधर 2014 से शुरू राजकीय सिंहेश्वर महोत्सव स्थानीय कला संस्कृति को समृद्ध करने का सबसे बड़ा माध्यम लेकिन दुखद है कि लगातार इसे  औपचारिकता मे बांधने की साजिश रची जा रही है।

 

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मंदिर के प्रवेश द्वार कहे जाने वाले हाथी गेट को नजरअंदाज करना शर्मनाक : एआईवाईएफ जिला अध्यक्ष राठौर ने कहा कि मंदिर और यहां के मेला का काफी लंबा व ऐतिहासिक महत्व है ।मेला के समय में मंदिर क्षेत्र अपने श्रद्धालुओं के स्वागत में दुल्हन की तरह शुरू से अंत तक सजाया जाता रहा है लेकिन इस बार की व्यवस्था ऐसी है कि मंदिर परिसर में जाने के मुख्य मार्ग मंदिर रोड के हाथी गेट को पूरी तरह भूला दिया गया है इसकी जितनी निंदा की जाए वह कम है। जबकि पहले विधिवत साफ सफाई के साथ इसकी रंगाई पुताई और सजावट भी की जाती थी क्योंकि यह मंदिर की ओर जाने का मुख्य मार्ग है।लचर व्यवस्था का आलम ऐसा हो चला है कि महाशिवरात्रि से एक दिन पहले मंदिर के तिजोरी से अस्सी हजार रुपए की चोरी पूरी व्यवस्था की पोल पट्टी खोल रहा है लगे कैमरे हाथी के दांत साबित हुए वहीं सुरक्षा के नाम पर मात्र एक दो जवान का होना भी विधि व्यवस्था की पोल खोल रहा है।

आठ साल में कभी अपने आयोजन के औचित्य को नहीं पा सका सिंहेश्वर महोत्सव : लिखे पत्र में राठौर ने स्थानीय लोगों के लगातार संघर्ष के बाद शुरू हुए सिंहेश्वर महोत्सव के आयोजन की व्यवस्था पर भी सवाल उठाए हैं। राठौर ने कहा कि भला महोत्सव कब से सिर्फ शास्त्रीय संगीत, नृत्य गायन और वादन का समागम होने लगा।ऐसी प्रस्तुतियां मुख्यता इसके चाहने वाले खास श्रोताओं के बीच किसी सीमित क्षेत्र में होता है न की महोत्सव में। कला संस्कृति मंत्रालय के संकल्प का हवाला देते हुए राठौर ने कहा कि महोत्सव का मूल उद्देश्य ही आंचलिक सांस्कृतिक पहचान को मंच देने और आम लोगों के मनोरंजन के लिए किया जाता है साथ ही  संबंधित व अन्य क्षेत्रों की उपलब्धि प्राप्त स्थानीय चर्चित प्रतिभाओं का सम्मान भी जो कभी नहीं किया गया। प्रचार प्रसार की हालत ऐसी है कि अभी तक समुचित पहल नहीं हुई जिसके कारण अक्सर जिले के सुदूर क्षेत्रों के अच्छे कलाकार भी नहीं जुड़ पाते।महोत्सव शुरू हुए वर्ष में छपी स्मारिका फिर किसी महोत्सव का हिस्सा नहीं बन सकी जबकि बिहार के किसी भी महोत्सव में स्मारिका विमोचन मुख्य आकर्षण होता है।

राठौर ने पत्र के माध्यम से बताया है कि विगत दो तीन वर्षों में ऐसे आयोजनों में जिला प्रशासन की हालत यही रहती है जिससे ऐसे आयोजन के औचित्य पर सवाल उठने लगे हैं इसलिए विभागिय स्तर से इस पर संज्ञान लेने की जरूरत है।

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