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  • महिला समानता दिवस पर :-लैंगिक समानता और सम्मान के लिए महिलाओं का संघर्ष जरूरी

    मानवीय समाज में स्त्री और पुरुषों के बीच लैंगिक समानता की खाई आज भी बहुत गहरी है। पितृ सत्तात्मक समाज और जातिवाद के कारण भेदभाव इतना गहरा और व्यापक है कि अनेक सामाजिक आंदोलनों और कानूनी प्रयासों के बावजूद यह खाई अभी तक पाटी नहीं जा सकी है। कथित तौर पर आधुनिक हो रही दुनिया


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    मानवीय समाज में स्त्री और पुरुषों के बीच लैंगिक समानता की खाई आज भी बहुत गहरी है। पितृ सत्तात्मक समाज और जातिवाद के कारण भेदभाव इतना गहरा और व्यापक है कि अनेक सामाजिक आंदोलनों और कानूनी प्रयासों के बावजूद यह खाई अभी तक पाटी नहीं जा सकी है।

    कथित तौर पर आधुनिक हो रही दुनिया में स्त्रियों के लिए यह भारी चिंता का विषय है। अब स्त्रियों को इसके लिए स्वयं प्रयास करने की जरूरत है।

    मौजूदा सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में कुछ महिलाएं अगर पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्रों में कामयाबी का परचम लहरा रही हैं तो इसके पीछे उनकी ज़िद और जुनून की ही ज्यादा भूमिका रही है।अब महिलाओं को ना सिर्फ समानता के लिए बल्कि सम्मान हासिल करने के लिए भी संघर्ष करना होगा।

    राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय महिला दिवस बीत गए हैं। इस मौके पर रस्म अदायगी बतौर दुनिया भर में महिलाओं ने अपनी कामयाबियों के जश्न मनाए लेकिन हमें स्त्रियों की मुश्किलों और बाधाओं को भी समझना पड़ेगा।सच्चाई यही है कि आज भी करोड़ों स्त्रियां ना तो समानता के स्तर पर पहुंच पाई हैं और ना ही उनका सम्मान बढ़ा है। उल्टे उन पर जुल्म ही बढ़े हैं। असल में आमतौर पर महिलाओं को इंसान ही नहीं समझा जाता है। उनको एक देह समझा जाता है जिसके कारण जन्म लेते ही भेदभाव शुरू हो जाता है। उनकी पूरी जिंदगी विडंबनाओं से भरी रहती है। यह हैरानी की बात है कि उनके हित में जितने सख्त कानून बनाए जा रहे हैं , उतने ही बर्बर अत्याचारों की वे शिकार भी हो रही हैं। इनकी हिफाजत ना सरकार कर पा रही है और ना समाज ही। घरों में भी हिंसा बढ़ रही है। धर्म और अन्धविश्वास के चलते उनकी कठिन जिंदगी में अनेक बाधाएं खड़ी होती रहती हैं और उनका स्थान दोयम दर्जे का हो जाता है।  उनकी रक्षा और शिक्षा के साथ उनके सर्वांगीण विकास के नारे बहुत लगाए जाते हैं लेकिन हकीकत में कुछ भी ऐसा उल्लेखनीय प्रयास नहीं हो पा रहा है, जिससे वे पूरी तरह से भयमुक्त हो सकें और उनके लिए कामयाबी के शिखर पर पहुंचने का रास्ता आसान हो सके।

    सैकड़ों सालों के इतिहास में पहली बार संगठित होकर न्यूयार्क में 1908 में पंद्रह हजार महिलाओं ने समानता के लिए सशक्त प्रदर्शन किया था। काम के घंटे कम करने ,बेहतर वेतन के साथ वोट देने के अधिकार के लिए महिलाओं द्वारा किया गया प्रदर्शन एक नजीर बन गया। एक सौ साल पहले महिलाओं के इस संकल्पबद्ध प्रदर्शन ने दुनिया भर की महिलाओं में समानता के साथ जीने के सपनों को जगा दिया। तबसे महिलाओं के हित में अनेक अभूतपूर्व फैसले हुए।

    बावजूद अपने देश में महिलाएं और बालिकाएं अभी भी संघर्षरत हैं,उनका दमन हो रहा है,उनके साथ दुर्व्यवहार हो रहा है और उनके साथ भेदभाव हो रहा है। महिला दिवस के आयोजन समानता हासिल करने के संकल्प के साथ शुरू हुए थे। वे संकल्प जो आज भी पूरे नहीं हुए हैं।

    अभी हाल में गुजरात के अहमदाबाद में दहेज के कारण एक विवाहित मुस्लिम महिला के साबरमती नदी में छलांग लगा कर आत्महत्या करने जैसी घटना ने साबित कर दिया है कि अपने देश में सभी समुदायों में महिलाओं का जीवन कितना कष्टमय हो गया है। प्रतिदिन प्रति मिनट महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार,बलात्कार और हत्या की घटना घटती है।

    निर्भया, कठुआ, खैरलांजी ,उन्नाव,तेलंगाना और हाथरस जैसी घटनाएं होती रहती हैं। इसी के साथ भ्रूण हत्या, एसिड अटैक, बाल विवाह, ऑनर किलिंग जैसी स्त्री विरोधी घटनाएं भी घटती रहती हैं ।

    स्त्रियों के विरुद्ध कई ऐसी धारणाएं अभी तक जड़ जमा चुकी हैं जिसके कारण उनके साथ भेदभाव होता रहता है। मसलन यह कहा जाता है कि स्त्रियां जैविक रूप से पुरुषों से कमजोर होती है, जबकि इसमें कोई सच्चाई नहीं होती। वास्तव में स्त्रियां सामाजिक स्तर पर  जन्म के बाद से ही अनेक प्रथाओं के कारण कमजोर बना दी जाती हैं। बचपन से ही लड़के और लड़कियों के बीच भेदभाव का सिलसिला शुरू हो जाता है।

    हालांकि बीते सौ सालों में महिलाओं की सफलता की अनेक कहानियां भी सामने आई हैं।

    वैश्विक स्तर पर महिलाएं विज्ञान, सेना, मीडिया,उद्योग के साथ राजनैतिक नेतृत्व और विरोध प्रदर्शन में अपनी भागीदारी दिखा कर दुनिया के समाजों और सरकारों को यह संदेश देने में कामयाब हुई हैं कि वे किसी से कम नहीं हैं लेकिन उनकी हत्या तो पहले गर्भ में ही की जा रही है और अगर वह जन्म लेकर जीने लगती है तो वे जीते जी भी अनेक बर्बर प्रताड़नाओं की शिकार होती हैं।

    पिछले साल से अब तक कोविड़ के वायरस के कारण उतने लोग नहीं मरे जितने हजारों सालों में पितृ सत्ता के वायरस से महिलाओं की मौत हुई है। कोरोना की वैक्सीन खोज की गई लेकिन अन्यायपूर्ण पितृ सत्ता के वायरस से मुक्ति के लिए कोई वैक्सीन नहीं खोजी जा सकी है। इस वायरस के कारण सैकड़ों सालों से महिलाएं  जन्म से लेकर मरने तक अनेक कष्टों और जुल्मों की शिकार होती आ रही हैं।

    आजादी के बाद अपने देश में संविधान में स्त्री पुरुषों को समान महत्व दिया गया। समानता के लिए उनके अधिकार सुनिश्चित किए गए। साथ ही समय समय पर उनके हित में नए और कड़े कानून भी बनाए गए। एक सर्वे के मुताबिक भारत यौन हिंसा के मामले में दुनिया में पहले नंबर पहुंच गया है। और जहां तक लैंगिक समानता की बात है तो इंडेक्स में भारत 111 देशों से पीछे है। बाकी के सौ देशों में भारत से बेहतर लैंगिक समानता है।

    गौरतलब है कि कोराना के दौरान भी घरेलू हिंसा में बहुत बढ़ोतरी देखने को मिली। एक अनुमान के मुताबिक महामारी के दौरान अब तक 24 करोड़ से अधिक महिलाओं और लड़कियों को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा।   लॉक डाउन के दौरान सायबर अपराधों में भी बेहिसाब बढ़ोतरी हुई और इसकी शिकार भी पहले महिलाएं हुईं।

    स्कूली शिक्षा ऑनलाइन हुई तो लैंगिक रूप से डिजिटल विभाजन के चलते कई लड़कियां स्कूल से बाहर हो गईं।

    यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक  पूर्व एशिया और पैसिफिक में कुल मिला कर 4 करोड़ लड़कियां महामारी के दौरान स्कूली शिक्षा से वंचित हो गईं। गुजरे सालों में महिलाओं ने अपने उद्यम से  लैंगिक समानता के लिए जो भी उपलब्धियां हासिल की थीं, वह अब धुंधली हो गई। संयुक्त राष्ट्र संघ के यूनिसेफ के हाल के रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में बाल विवाह के मामले भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। दशक के अंत से पहले 18 साल से कम उम्र की एक करोड़ अतिरिक्त नाबालिग लड़कियों के बाल विवाह हो सकते हैं। बाल विवाह के कारण बच्चियों को कितनी कठिनाई होती है, यह किसी से छिपी नहीं है। कम उम्र में गर्भवती होने से कइयों की मौत भी होती है। इस मामले में भारत की हालत भी ठीक नहीं है।

    रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की हर तीन बालिका वधुओं में से एक भारत में रह रही हैं।इस तरह हम देखते हैं कि लैंगिक समानता के लिए खास कर भारत में महिलाओं को लंबा संघर्ष करना पड़ेगा। घर और परिवार, समाज और सरकारों को महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर मिल कर काम करना होगा क्योंकि हम महिलाओं की उपेक्षा कर कोई विकसित समाज का निर्माण नहीं कर सकते। इसलिए महिलाओं को चुनौती देने का अभियान निरंतर चलाते रहना होगा। उनकी हालत में आमूल चूल बदलाव उनकी जागृति और संघर्ष से ही संभव है। क्योंकि अनेक पूर्वग्रह और निराधार मान्यताओं और धारणाओं से भरी दुनिया महिलाओं पर कोई मेहरबानी करने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं दिखती है। कोरो ना से पीड़ित दुनिया में सब कुछ नए सिरे से सोचा व किया जा रहा है तो  महिलाओं और लड़कियों के बारे में भी नए सिरे से सोचने व करने के लिए ना सिर्फ स्त्रियों को बल्कि पुरुषों को भी आगे आना होगा।

    हेमलता म्हस्के
    समाजसेविका सह साहित्यकार
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