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बाघ को बचाना जरूरी,बचाने का प्रयास नाकाफी - Kosi Times
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  • बाघ को बचाना जरूरी,बचाने का प्रयास नाकाफी

    इस बार भी अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस पर काफी सीमित क्षेत्रों में ही बाघ को लेकर कुछ गतिविधियां हुईं हम कुछ गैर जरूरी मुद्दों पर जल्दी ही सरगर्म हो जाते हैं लेकिन कुछ अहम मुद्दों को बहुत जरूरी होते हुए भी हाशिए पर धकेल देते हैं। खासकर पर्यावरण और जैव विविधता जैसे मुद्दों पर अभी भी


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    हेमलता महस्के
    समाजसेविका सह साहित्यकार

    इस बार भी अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस पर काफी सीमित क्षेत्रों में ही बाघ को लेकर कुछ गतिविधियां हुईं हम कुछ गैर जरूरी मुद्दों पर जल्दी ही सरगर्म हो जाते हैं लेकिन कुछ अहम मुद्दों को बहुत जरूरी होते हुए भी हाशिए पर धकेल देते हैं। खासकर पर्यावरण और जैव विविधता जैसे मुद्दों पर अभी भी सरकार और समाज उदासीन ही दिखता है क्योंकि ये खतरे आज सीधे सर पर सवार नहीं है लेकिन दूरगामी नतीजे खतरनाक साबित होने वाले हैं। पर्यावरण का तेजी से क्षरण हो रहा है। जैव विविधता नष्ट हो रही है। पशुओं और पक्षियों की संख्या लगातार घटती जा रही है। बाघों का प्रकृति की भोजन शृंखला में महत्वपूर्ण स्थान है।
    बाघों का इतिहास खंगाले तो पता चलता है कि बाघ 19 लाख साल से भी ज्यादा समय से इस धरती पर निवास कर रहे हैं । मौजूदा समय में भारत के राष्ट्रीय पशु बाघ पर संकट कम नही हो रहा है।अब तक दुनिया भर में बाघों की तीन प्रमुख प्रजातियां पूरी तरह से लुप्त हो गई हैं और बाकी बची 6 प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। बाघ को संरक्षित करने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया तो बाघों की शेष आबादी भी लुप्त हो जाएगी। हालांकि इस साल सामने आए आंकड़ों के मुताबिक पिछले सात सालों में दुनिया भर में बाघों की आबादी में 40 फीसदी बढ़ोतरी हुई है लेकिन विशेषज्ञ बताते हैं कि बाघों के संरक्षण की पद्धति में और भी सुधार की जरूरत है।
    बाघों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध ”पैंथरा” के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ की ओर से किए गए नए आकलन के मुताबिक वर्ष 20 15 में बाघों की संख्या 3200 थी जो बढ़कर 4500 हो गई है । वहीं विश्व वन्यजीव कोष की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में लगभग 3900 भाग जंगलों में रहते हैं। बीसवीं सदी की शुरुआत के बाद से दुनिया की 95 फ़ीसदी से अधिक बाघ को आबादी खो चुकी है। इसकी बड़ी वजह बढ़ते शहरीकरण और सिकुड़ते जंगल हैं। एक सदी पहले एक लाख बाघ थे अब मात्र ₹4500 अफगानिस्तान, आर्मेनिया, अजरबैजान कंबोडिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, उज्बेकिस्तान ,तुर्की ,पाकिस्तान सहित कई देशों में बाघ पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में भी बाघ के विलुप्त होने की आशंका है अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ के अनुसार बाघों की सबसे ज्यादा आबादी 76 फीसदी दक्षिण एशिया में है । इनकी संख्या लगातार बढ़ी है खासतौर से भारत और नेपाल में , जहां रोजाना बाघों के कुनबे के बढ़ने की उम्मीद रहती है। पूर्वोत्तर एशिया के तहत रूस में बाघों की आबादी स्थिर है अपने देश में सबसे अधिक बाघों वाला राज्य मध्य प्रदेश है। जहां बाघों की संख्या 524 है। इसके बाद दूसरे पर कर्नाटक है जहां 524 बाघ हैं। तीसरे पर उत्तराखंड जहां 442 बाघ हैं। इसी तरह आंध्र प्रदेश में 48, अरुणाचल प्रदेश में 29 असम में 190 ,बिहार में 67,
    छत्तीसगढ़ में 19 गोवा में तीन, झारखंड में 5, केरल में 190, महाराष्ट्र में 312 ,ओडिशा में 28 राजस्थान में 91, तमिलनाडु में 264, उत्तर प्रदेश में 173 और पश्चिम बंगाल में 88 बाघ हैं।
    अपने देश में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी के बीच उनका संकट कम नही हुआ है। पिछले कुछ सालों से बाघों की अप्रत्याशित मौतें चिंता की बात है। बाघों की संख्या में कमी होने का कारण जंगलों में बढ़ता इंसानी दखल भी है। इंसान बाघों की मांद में ताक झांक कर रहा है तो बाघ इंसानी बस्ती की ओर रुख कर रहे हैं। बाघ गन्ने के खेतों से होते हुए इंसानी बस्तियों की ओर बढ़ रहे हैं। हाल के दिनों में भारत में मानव तथा बाघों के टकराव की दर में वृद्धि हुई है जिसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों की अंधाधुंध कटाई और बाघों के प्राकृतिक आवास का खत्म होना है। इसके अलावा जंगलों में सिंचाई,राजमार्ग का निर्माण, विभिन्न रेल परियोजनाओं का विकास आदि के कारण बाघों सहित अन्य जंगली जीवों के लिए संकट बढ़ता जा रहा है।
    आंकड़े बताते हैं कि भारत के कुल क्षेत्रफल का महज पांच फीसद क्षेत्र संरक्षित है जो वन्यजीव खासकर बाघों के लिए उपयुक्त नहीं है । बाघों को अपने आवास में सही तरीके से रहने और वृद्धि के लिए कम से कम 50 से 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की जरूरत है जो ज्यादातर जगहों पर उपलब्ध नहीं है। वन्य जीव विशेषज्ञों के मुताबिक बाघों की कुल आबादी का 29 फीसद बाघ संरक्षित क्षेत्र से बाहर है,जिसके कारण इंसान और बाघों का संघर्ष बढ़ गया है। बाघों का शिकार भी नहीं रुक रहा। अंतर्राष्ट्रीय स्तर दक्षिण कोरिया, ताइवान, ग्रेट ब्रिटेन, जापान और चीन जैसे देशों में बाघों की चमड़ी और उनके अंगों का बहुत बड़ा काला बाजार है। जलवायु परिवर्तन की समस्या भी बाघों के लिए घातक साबित हो सकती है।
    केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने बीते दिनों संसद में बताया कि वर्ष 1920 से 21 के बीच हर तीसरे दिन एक बाघ की मौत हुई है इस तरह इन तीन वर्षों में कुल 329 बाघ मौत के मुंह में चले गए। इतनी संख्या में बाघों की मौत को देखते हुए लगता है कि बाघों को बचाने के प्रयास नाकाफी हैं। 2012 से हर साल 98 बाघों की मौत हुई है। सबसे ज्यादा पिछले साल 2021 में 126 बाघ मौत के मुंह में समा गए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अपने देश में पिछले दस सालों में 530 बाघों की मौत हुई है लेकिन जानकार बताते हैं बाघों की मौत और भी ज्यादा हुई है। बाघों के शिकार पर रोक के लिए कड़े कानून बनाने की जरूरत है। भारत में 1972 में बाघों के संरक्षण के लिए अधिनियम बना। तबसे बाघों के संरक्षण के उपायों को लागू किया जाने लगा। बाघों के संरक्षण के लिए और भी कारगर तरीका इस्तेमाल करना होगा।

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