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महाशिवपुराण कथा के अंतिम दिन उमड़ा आस्था का सैलाब, शांतिपूर्ण तरीके से कथा का हुआ समापन

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सिंहेश्वर,मधेपुरा/ सिंहेश्वर की पावन धरती पर रविवार को आस्था का सैलाब उमड़ पड़ा. सात दिवसीय शिव महापुराण कथा का समापन हुआ. अंतिम दिन कथा सुबह 8 से 11 बजे तक चली. व्यास पीठ से गुरुदेव पंडित प्रदीप मिश्रा ने प्रवचन दिया. कथा के अंतिम दिन पांच लाख से ज्यादा श्रद्धालु पहुंचे. पंडित मिश्रा ने कहा मेरे भोलेनाथ पर विश्वास रखो. देवता भी रावण से डरते थे. लेकिन रावण केवल महादेव से भय खाता था. कर्म करते समय फल की चिंता नहीं करनी चाहिए. हर व्यक्ति को अपना काम पूरी निष्ठा और निस्वार्थ भावना से करना चाहिए. मेहनत का फल भगवान शंकर देंगे. व्यक्ति का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं.

गुरुदेव ने कहा कई बार परिस्थितियों या भावनाओं में बहकर हम ऐसे फैसले कर लेते हैं जो हमारे कर्म को प्रभावित करते हैं. समर्पण और निष्ठा से किया गया काम ही सच्चा कर्म है. यह पृथ्वी लोक शंकर का है. देवलोक, इंद्रलोक, स्वर्गलोक और बैकुंठ धाम में जब तक पुण्य है. तब तक रह सकते हैं. पुण्य समाप्त होने पर धक्का मारकर पृथ्वी लोक में भेज दिया जाता है. यहां कंकड़- कंकड़ में शंकर बसे हैं.

::कैलाश पर्वत पर भगवान भोले के चरणों में रहने की करें कामना:::
उन्होंने कहा, सभी कैलाश पर्वत पर भगवान भोले के चरणों में रहने की कामना करें. वहां से और कहीं नहीं धकेला जाएगा. यहां सारे वार और परिवार शिव के हैं. जो सास अपनी बहू और जो बहू अपनी सास के साथ रह रही है, वे किस्मत वाले हैं. अपने बच्चों को संस्कारवान बनाओ. इससे आने वाला समय श्रेष्ठ होगा और देश उन्नति करेगा. भगवान भोलेनाथ को सपरिवार अपने घर में आमंत्रित करें. उन्हें पीले चावल से आमंत्रण दें. गऊ, गुरु और गोविंद के सामने पांव मोड़कर और हाथ जोड़कर बैठो. मन को मोड़कर ही भगवान के पास बैठना है. परमात्मा की ओर अपने मन को मोड़ना है.

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::भगवान शंकर को पालक और संहारक दोनों रूपों में जाता है पूजा :::
पंडित मिश्रा ने कहा भगवान शंकर को पालक और संहारक दोनों रूपों में पूजा जाता है. भोलेनाथ का अर्थ है कोमल हृदय वाला, दयालु और आसानी से माफ करने वाला देवता. भगवान शिव थोड़े से प्रयास से भी प्रसन्न हो जाते हैं. भक्तों की सच्ची श्रद्धा से वे तुरंत वरदान देते हैं. भगवान शिव छल- कपट से दूर रहते हैं. इसलिए उन्हें भोलेनाथ कहा जाता है. उन्होंने बताया लिंगम को पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक माना जाता है. शिवलिंग का आकार ब्रह्मांड की अनंतता और ऊर्जा का प्रतीक है. शिवलिंग में भगवान शिव का निराकार रूप विद्यमान है. समुद्र मंथन के समय निकले 14 रत्नों में से कई रत्न भगवान शिव को प्रिय हैं.
समुद्र मंथन से निकले विष को भगवान

शिव ने अपने कंठ में किया था धारण-
समुद्र मंथन से निकले विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया था. इसी कारण उन्हें नीलकंठ कहा जाता है. भगवान शिव का वाहन नंदी भी समुद्र मंथन से प्राप्त रत्नों में गिना जाता है. नंदी भगवान शिव के सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं. शिवजी के गले में जो नाग है, वह भी समुद्र मंथन से निकला था. नागों को भगवान शिव ने अपने आभूषण के रूप में धारण किया.

बेलपत्र है भगवान शिव को अत्यंत प्रिय-
समुद्र मंथन से निकले चंद्रमा को भी भगवान शिव ने अपने सिर पर धारण किया. इस कारण उन्हें चंद्रशेखर कहा जाता है. भगवान शिव का प्रिय पुष्प मदार भी समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हुआ था. बेलपत्र भी भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है. मान्यता है कि बेलपत्र चढ़ाने से भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं. समुद्र मंथन से निकली गंगा को भी भगवान शिव ने अपनी जटाओं में धारण किया. गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के समय भगवान शिव ने उसकी तेज धारा को अपनी जटाओं में समेटा था. भगवान शिव का त्रिशूल भी समुद्र मंथन से निकले दिव्य रत्नों में से एक माना जाता है. त्रिशूल को शक्ति, इच्छा और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है. भगवान शिव के डमरू को भी विशेष महत्व प्राप्त है. डमरू की ध्वनि से सृष्टि की रचना का आरंभ हुआ था. समुद्र मंथन से निकले रत्नों में से कई आज भी भगवान शिव के स्वरूप और पूजा में शामिल हैं. इसी कारण भगवान शिव को सृष्टि का पालक और संहारक कहा जाता है.
::भगवान शंकर ने जोर से फूंका शंख चारों तरफ होने लगी बारिश ::
पंडित मिश्रा ने एक कथा सुनाई. देवताओं को पता था कि जब शंकर भगवान शंख बजाएंगे तभी बारिश होगी. शंख न बजने से घोर अकाल पड़ गया. पानी की एक बूंद तक नहीं बरसी. धरती पर त्राहिमाम मच गया. एक दिन भगवान शंकर और माता पार्वती आकाश में विचरण कर रहे थे. भोलेनाथ और पार्वती बदले हुए वेश में आकाश से नीचे उतरे. उन्हें याद आया कि एक वर्ष से शंख नहीं बजाया. कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गए. भगवान शंकर तुरंत अपनी झोली से शंख निकाला और जोर से फूंका. चारों ओर बादल घिर आए. बिजली चमकी. जोरदार बारिश होने लगी.

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