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दीपावली पर पटाखे फोड़ने की परंपरा की शुरुआत कैसे हुई? - Kosi Times
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  • दीपावली पर पटाखे फोड़ने की परंपरा की शुरुआत कैसे हुई?

    दिवाली पर आतिशबाजी करने या पटाखे जलाने की परंपरा का कोई प्रमाण धार्मिक ग्रंथों में नहीं मिलता है। ऐसे में सवाल यह है कि, फिर ये परंपरा किसकी देन है? दिवाली मनाने की परंपरा में समय-दर-समय बहुत बदलाव आ गया है. रीति-रिवाजों और परंपरा से भली-भांति अवगत न होने की वजह से लोगों ने दिवाली


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    संजय कुमार सुमन,साहित्यकार

    दिवाली पर आतिशबाजी करने या पटाखे जलाने की परंपरा का कोई प्रमाण धार्मिक ग्रंथों में नहीं मिलता है। ऐसे में सवाल यह है कि, फिर ये परंपरा किसकी देन है? दिवाली मनाने की परंपरा में समय-दर-समय बहुत बदलाव आ गया है. रीति-रिवाजों और परंपरा से भली-भांति अवगत न होने की वजह से लोगों ने दिवाली को अपने-अपने तरीकों से रूपान्तरित कर लिया है।दिवाली पर दीप जलाने के संबंध में तो कई पौराणिक लेख मिलते हैं. लेकिन इस दिन आतिशबाजी करने के संबंध में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता और ना ही यह भारतीय सभ्यता-संस्कृति का परिचायक है।
    पटाखों के प्रलचन और इसके इतिहास को लेकर ऐसा कहा जाता है कि, पटाखे जलाने की परंपरा की शुरुआत मुगलकाल से हुई थी। हथियार के तौर पर बारुद का पहली बार इस्तेमाल मुगल बादशाह बाबर ने किया था। भारत ने जब बाबर पर आक्रमण किया था तो उसने दिल्‍ली सल्‍तनत के अंतिम सुल्‍तान इब्राहिम लोदी को हराने के लिए युद्ध में बारुद का इस्‍तेमाल हथियार के तौर पर किया था। कह सकते हैं कि उसकी जीत में बारुद के उपयोग का बड़ा योगदान रहा था।हालांकि सुरंग में विस्फोट डालकर उसमें ब्लास्ट करने की कहानियों का जिक्र बाबर के इस युद्ध से पहले भी मिलता है।वहीं कुछ इतिहासकारों को मानना है कि सातवीं शताब्दी में चीन में पटाखों में आविष्कार हुआ था। इसके बाद 1200-1700 ईस्वी तक यह दुनिभार में पटाखे जलाना लोगों की पसंद बन गया। इतिहासकारों का मानना है कि, भारत में पटाखे या आतिशबाजी मुगलों की ही देन है। क्योंकि मुगलवंश के संस्थापक बाबर के देश में आने बाद ही यहां बारूद का इस्तेमाल होने लगा. इसलिए भारत में इसकी शुरुआत मुगलकाल से मानी जाती है।
    भारतीय आतिशबाज़ी का सबसे पहला विश्वसनीय उपयोग हम 1443 में ही देखते हैं, जब देवराय द्वितीय के शासनकाल के दौरान विजयनगर दरबार के राजदूत अब्दुर रज्जाक ने महानवमी उत्सव में आतिशबाज़ी के इस्तेमाल का उल्लेख किया था। सुल्तान फ़िरोज़ तुगलक (1351-88) के शासनकाल के दौरान दिल्ली में शब-ए-बारात के अवसर पर “फूल बिखेरने वाले रॉकेट” (हवाई-हा-आई गुलरेज़ ‘अंबरबेज़ मी बख्त) के “विस्फोट” से जुड़ी आतिशबाज़ी का विवरण शम्स-ए-सिराज ‘अफ़ीफ़ द्वारा लिखित तारीख-ए-फ़िरोज़ शाही में पाया जा सकता है।
    संस्कृत स्रोतों में, हम पाते हैं कि उड़ीसा के गजपति प्रतापरुद्रदेव द्वारा रचित कौतुकचिंतामणि में, साथ ही आकाशभैरव कपल में, ‘विनोदननी’ या शाही मनोरंजन के लिए विभिन्न आतिशबाजी तैयार करने के लिए कई सूत्र भरे हुए हैं। पुर्तगाली लेखक और अधिकारी डुआर्टे बारबोसा ने ट्रैवल्स (1518) में गुजरात में एक ब्राह्मण विवाह में आतिशबाजी के उपयोग के बारे में लिखा है, जो हमें दर्शाता है कि आतिशबाजी का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जा रहा था जिसका उपयोग विवाह में किया जा सके। इस प्रकार हम देखते हैं कि रक्षा/आक्रमण उद्देश्यों के अलावा मनोरंजन के लिए प्रौद्योगिकी का धीरे-धीरे उपयोग बढ़ रहा है।


    1700 के दशक के अंत में लखनऊ के नवाब असफ़द्दौला के शासनकाल से, हम पाते हैं कि अंग्रेज़ भारतीय राजकुमारों को प्रभावित करने के लिए आतिशबाजी के विस्तृत प्रदर्शन की तैयारी करते थे, जिसका उल्लेख हमें नाना फ़र्नवीस को भेजे गए मराठी स्रोतों में मिलता है। सबसे लंबा विवरण एक अंग्रेज़ आतिशबाज़ी ‘कलाकार’ करार का है जिसने 1790 के आसपास नवाब के लिए एक प्रदर्शन कार्यक्रम तैयार किया था। अवध के नवाब वज़ीर और बंगाल के नवाब निज़ाम ने 18वीं और 19वीं सदी में दुर्गा पूजा और दिवाली एक साथ मनाई, साथ ही अद्भुत आतिशबाजी का प्रदर्शन भी किया। इस तरह, दिवाली भारत के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक बन गई।
    अठारहवीं शताब्दी के अन्त में (लगभग १७९० में) अंग्रेजों ने भी अपनी आतिशबाजी का भारत में वितरण आरम्भ किया। इसके उपरान्त दीपावली पर आतिशबाज़ी का प्रयोग धीरे-धीरे उल्लेख में आने लगा। इसके बाद भी यह राजाओं, नवाबों, और धनाढ्य व्यक्तियों के शक्ति तथा वैभव-प्रदर्शन का साधन रहा। उन्नीसवीं शताब्दी में कलकत्ता में आतिशबाज़ी का पहला कारखाना लगाया गया। किन्तु, आतिशबाज़ी के बारूद का सामरिक प्रयोग देखते हुए भारत में आतिशबाज़ी का उपयोग सीमित ही रखा गया। शिवकाशी, तमिलनाडु के नाडार भाइयों, अय्या नाडार तथा शण्मुग नाडार, ने १९२३ से कलकत्ता के माचिस कारखाने में काम किया था, यहीं उन्हे फुलझड़ियों को बनाने की प्रक्रिया भी सीखी। इस आधार पर उन्होंने शिवकाशी में माचिस बनाने का कारखाना लगाया। १९४० में भारत में विस्फोटक नियन्त्रण अधिनियम में परिवर्तन हुआ। जिससे वैधानिक रूप से कुछ प्रकार के पटाखे बनाने की कुछ निर्माताओं को छूट दी गई। इसका लाभ उठाते हुए नाडार बन्धुवों ने अपने माचिस कारखाने में ही पटाखे बनाना आरम्भ किया। शीघ्र ही शिवकाशी में अन्य कारखानों में भी पटाखे बनने लगे। भारत की स्वतंत्रता के उपरान्त ही शिवकाशी आतिशबाज़ी निर्माण के एक बडे केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। इसी के साथ जनसाधारण में पटाखों का प्रयोग सामान्य हुआ। १९४० में आरम्भ हुए इस उद्योग ने बहुत प्रगति की
    हालांकि प्रमाण के साथ यह कहना मुश्किल है कि, देश में पटाखे या आतिशाबाजी का प्रचलन कब शुरू हुआ. लेकिन यह तय है कि यह परंपरा चीन की देन है और आज भी यहां पटाखे जलाने की परंपरा प्रचलित है. चीन के लोगों का ऐसा मानना है कि, आतिशबाजी के शोर से बुरी आत्माएं, विचार, दुर्भाग्य आदि दूर होते हैं.
    👉🏻स्रोत:-विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं पुस्तकों के अध्ययन से संग्रहित
    (लेखक संजय कुमार सुमन लगातार विभिन्न विधाओं पर लिखते रहे हैं।राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दर्जनों सम्मानों से सम्मानित हैं।)

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