लोक देवता बाबा विशु राउत की धरती पचरासी स्थल-जहाँ बहती है दूध की सरिता

👉 चरवाहों के लोकदेवता हैं बाबा विशुराउत
संजय कुमार सुमन साहित्यकार सह समाजसेवी

मधेपुरा जिले के चौसा प्रखंड मुख्यालय से आठ किलोमीटर दक्षिण पचरासी स्थल पर अवस्थित लोक देवता बाबा विशु राउत मंदिर न केवल अपने धार्मिक महत्व के कारण सैकड़ों वर्षो से जाना जाता है,बल्कि साम्प्रदायिक सौहार्द,सामाजिक समरसता तथा गरिमा पूर्ण सभ्यता एवं संस्कृति का भी परिचायक है। प्रत्येक सोमवार एवं शुक्रवार को वैरागन मेला में श्रद्धा एवं भक्ति के साथ यहां दुधाभिषेक किया जाता है। प्रत्येक वर्ष मेष सतुआ` सक्रांति के अवसर पर 14 अप्रैल से चार दिवसीय विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव होने एवं आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण प्रशासनिक देख रेख में दो दिवसीय मेला ही लगाया गया है।मेले में विभिन्न राज्यों एवं जिलों से आये पशुपालक भक्तो द्वारा बाबा विशु राउत की प्रतिमा पर दुधाभिषेक किया जाता है। पशुपालक भक्तों द्वारा चढ़ाये गये दूध की यहां सरिता बहती है।

प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार मुगल बादशाह रंगीला के 1719 ई0 के समकालीन भागलपुर जिले के सबौर में बालजीत गोप के घर विशु राउत का जन्म हुआ। विशु तीन भाई बहन थे। विशु का लालन पालन सबौर में हुआ। वे जब 13 वर्ष के थे तभी इनका विवाह रूपवती नामक कन्या से नवगछिया के सिमरा गांव में हुआ था। पिता के निधन के बाद गृहस्थी का सारा काम विशु के कंधों पर आ गया। चैत माह में चारा नहीं मिलने पर वे काफी परेशान होने लगे। उसी समय अपनी पांच रास गाय को लेकर गंगा पार करके चौसा के लौआलगान के वीचन वन में अपना बथान स्थापित किया जो बाद में ‘पचरासी स्थल’ के नाम से चर्चित हुआ। यहां चारे की कमी नहीं थी। विशु के बथान के बगल में घघरी नदी में मोहन गोढी मछली माही करता था जिससे इनकी दोस्ती हो गई। कालान्तर में विशु द्वारा लाये गये गायों की संख्या नब्बे लाख हो गई। सभी गायों को वह मोहन के जलकर में ही पानी पिलाया करता था।

जब विशु 20 वर्ष का हुआ तब इनके घर सबौर से द्विरागमन(गौना)कराने की खबर मिली। विशु जाने के पहले गायों की जिम्मेवारी अपने छोटे भाई अवधा एवं चरवाहा नन्हुवा को सौंप दिया। इधर विशु के दोस्त मोहन ने बथान पर आकर अवधा एवं चरवाहा नन्हुवा से कहा कि कल मेष सतुआ संक्रांति का पर्व है। अपने सभी प्रियजनों को घघरी घाट पर छांकी पीने का निमंत्रण दिया है। इसके लिए दूध चाहिए। दोनों को डरा-धमका कर मोहन ने सभी गायों के बछड़ों को खूटें में बांध दिया और नहीं खोलने की हिदायत देकर चला गया। सभी बछड़े भूख से छटपटाने लगे। गायों की दुर्दशा को देखकर अवधा एवं नन्हुवा विलख-विलख कर रोने लगे। वे अपने मालिक को गायों की सुरक्षा हेतु पुकारने लगे।

गहैली माता के दैविक चमत्कार से स्वस्थ हुए गाय एवं बछड़े

कहा जाता है कि मां गहैली ने विशु को स्वप्न दिया कि ‘तू यहां अपनी पत्नी के साथ है और वहां बथान पर तुम्हारे प्रिय पशु बेमौत मारे जा रहे हैं। तू अभी जा और अपने पशुओं की रक्षा कर।’ विशु अपनी पत्नी को सोते छोड़ निस्तब्ध रात्रि में पचरासी स्थल पहुंचे। नन्हुवा ने अपने मालिक से लिपट-लिपट कर मोहन की काली करतूतों से उन्हें अवगत कराया। पशुओं की हालत देखकर उन्होनें गहैली माता को स्मरण किया। गहैली माता के दैविक चमत्कार से गाय एवं बछड़े स्वस्थ होकर चलने लगे। विशु रात भर चलने के कारण बथान पर जाकर सो गये। मोहन अपने साथियों के साथ बथान पर आया और सभी गाय-बछड़े को खुला देख कर आग बबूला हो गया। मोहन और चरवाहा नन्हुवा के बीच मारपीट होने लगा। मोहन के चिल्लाने पर विशु ने छोड़ देने का आदेश दिया। मोहन लंगराते-लंगराते अपने घर लौआलगान पहुंचा और सारी बात अपनी मां बहुरा योगिन को बताया जो जादूगरनी थी।

चरवाहों के लोकदेवता हैं बाबा विशुराउत

प्रचलित किंवंदंतियों के अनुसार मोहन की मां ने आवेश में आकर मां बागेश्वरी को स्मरण किया। बहुरा ने जादू से एक बाघ को विशु के बथान पर भेजा। संयोग से विशु उस समय गहरी नींद में सो रहे थे। करूणा जो धाकड़ था,बाघ को देखते ही उससे भिड़ गया। बाघ करूणा को मार कर विशु के जगने का इंतजार करने लगा। जब विशु जगा तो करूणा को मरा देखकर बहुत दुःखी हुआ और लाठी से बाघ को मार कर घघरी नदी में फेंक दिया। घघरी नदी में मृत बाघ को धारा के साथ बहते हुए देखकर बहुरा योगिन तिलमिला उठी। मृत बाघ की पत्नी को धिककारते हुए बोली तू भी जाओ,जिस तरह तुम्हें विधवा बनाया है उसी तरह विशु की पत्नी को भी विधवा बना दो। इतना सुनते ही बाघिन विशु के बथान पर जाकर ललकारने लगी। लेकिन विशु ने बाघिन से कहा कि वह औरत जाति का सम्मान करता है। इसलिए वह उसकी हत्या कर अपने पति का बदला चुका लें। इतना कहकर विशु उत्तर -दक्षिण दिशा में सो गये और कुल देवी गहैली माता का स्मरण करते हुए अपने प्राण त्याग दिये। उसी समय नब्बे लाख गायें डकारती हुई विशु के पार्थिव शरीर के पास पहुंची और उनके शव को चारों आकर से घेर लिया। सभी गायें अपने स्तनों से दूध की अविरल धारा बहाने लगी,जो नदी की धारा में परिवर्तित हो गयी।

कहते हैं कि विशु का शव दूध की धारा में विलीन हो गया। वहां के ग्रामीणों तथा चरवाहों ने मिलकर एक मंदिर का निर्माण किया और पूजा-अर्चना तथा दूध अर्पित करने लगे। बाबा विशु के प्रति भक्तों में आज भी वही आस्था है जो वर्षों पूर्व में थी। बिहार के अलावा उत्तर  प्रदेश,पश्चिम बंगाल और नेपाल के इलाके से भक्तजन कच्चा दूध बाबा की समाधि पर प्रतिवर्ष चढ़ाने आया करते हैं।

क्या है चरवाहे का इतिहास

चरवाहा अर्थात गाय भैंस भेड़ बकरी चराने वालों को हम इसे लोक भाषा में चरवाहा (धोरई)कहते हैं ।चरवाहा शब्द जितना सुनने में गवई है।उतना ही हमारे सभ्यता और संस्कृति से इसका गहरा तालुकात है ।विश्व के ऐतिहासिक पटल के अध्ययन से यह जान पड़ता है कि आज भी जो दार्शनिक पुरुषार्थी या फिर लोक देवी देवताओं के रूप में स्मरण किए जाते हैं। उनके गर्भ में पशु प्रेम और मानवता का राज छुपा हुआ है।विश्व के इतिहास पटल पर चरवाहा के बीच से ही ईसा मसीह पैदा हुए थे।ईसा मसीह भेड़ चराते चराते बड़े ही साधक संत बन गए .जो परमेश्वर के रुप में पूजे जाते हैं।मोहम्मद साहब तो बकरी चराते थे जो बाद में पैगंबर बने। बिरसा मुंडा भी दूसरों की बकरी चरा कर बड़े हुए और अंग्रेजो के खिलाफ उन्होंने जेहाद छेड़ दिया ।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी बकरी पालते और बकरी के दूध सेवन कर भारत की आजादी को हासिल किया।महाभारत कथा के अनुसार श्रीकृष्ण चरवाहा समाज का उत्थान किए और गीता सार की रचना की .रामायण के अनुसार श्री राम भी 14 वर्षों तक बंदर और भालू के साथ पशु प्रेम किए जो मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजे जाते हैं।

कोसी अंचल के लोक देवता बाबा विशु

साहित्यकार सह बाबा विशु राउत महाविद्यालय चौसा के पूर्व प्राचार्य  प्रो.उत्तम कुमार,लेखक विनोद आजाद,कुंदन घोषईवाला बताते हैं कि लोक देवता का संबंध लोकजीवन से है ।लोकजीवन का तात्पर्य है किसी क्षेत्र में बसे उन सामान्य लोगों का जीवन जो किसी मौखिक परंपरा विश्वास आस्था जुडी कथा गीत नृत्य आदि की धारा में अपने पशु-पक्षी जीविका के आधार वन पर्वत नदी के साथ संग संग बहता है। इसकी सभ्यता ही लोक जीवन है।लोक देवता इसी लोकजीवन का आध्यात्मिक पक्ष है इस की अध्यात्मिकता किसी दार्शनिक व्याख्या पर आधारित नहीं होती बल्कि लोक आस्था ही इस का आधार होता है और मौखिक परंपरा ही इसका संवाहक है। लोक देवता की उत्पत्ति या आस्था का मूल कारण है सामूहिक शक्ति संचय की भावना इसकी ऑलोलिता में अंधविश्वास नहीं बल्कि लोकजीवन की आस्था है।इस आस्था से वह मानव समूह अपने ही अनु प्रमाणित करता है।अपने जीवन के दैनिक कार्यों के लिए जीवनी शक्ति संचित करता है कभी-कभी अपनी निष्ठा व्यक्त कर अपनी सामूहिक एकता व्यक्त करता है।यही लोक देवता का उपयोगी पक्ष है।इस संदर्भ में कोसी अंचल के लोक देवताओं के चिन्हित स्थलों का अध्ययन कर लिखित सामग्री का संकलन कर लोगों में प्रचारित करने की जरूरत है ताकि लोक देवताओं के बारे में आम नागरिकों को जानकारी हो सकें।

चरवाहाधाम पचरासी ने कैसे पाया राष्ट्रीय स्तर तक पहचान

चरवाहों का तीर्थ चरवाहाधाम ने आज राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली है।भागलपुर व खगड़िया जिला के सीमावर्ती मधेपुरा जिला के चौसा प्रखंड अंतर्गत लौआलगान में स्थित चरवाहाधाम पचरासी आज किसी के परिचय का मुहताज नहीं है।हर्ष की बात तो यह है कि धूल-धूसरित, आधुनिकता से कोसों विसरित इस निर्जन स्थल का सर्वे करने अब केंद्रीय टीम भी चलकर पहुँचने लगी है।आखिर कैसे संभव हुआ यहां तक का मुकाम..? चरवाहाधाम पचरासी की राष्ट्रीय स्तर पर फैले व्यापक लोकप्रियता के लिये यदि बाबा विशुराउत की कृपा या चमत्कार आदि जैसे भावनात्मक बातों को किनारा करके देखा जाये तो सबसे पहले यहाँ के स्थानीय जागरूक समाज ही प्रशंसा के पात्र माने जायेंगे। जी हाँ!जानकारी हो कि इस स्थल पर पिछले पाँच दशक से भी ज्यादा समय से लगातार मेले का आयोजन होता आ रहा है।तथा चरवाहों के उद्धार के लिये बनाये गये *चरवाहा संघ* भी यहाँ वर्षों से संचालित हैं।1975ई०से भी पूर्व यहाँ कदवा के हिसाबी सिंह,लौआलगान के योगेन्द्र तूफान,तीला सिंह,चंदेश्वरी शर्मा, गणेशपुर खरीक के जगदेव यादव, ढ़ोढ़ाय मुखिया, माधव सिंह, सरयुग यादव, भुजंगी राय आदि जैसे हस्तियों द्वारा मेले का आयोजन किया जाता था,जो साल दर साल लगातार चलते हुए और भी व्यापक होता चला गया।पचरासी मेले की भव्यता और महत्ता का प्रचार-प्रसार दूर-दूर से आये चरवाहों द्वारा भी निरंतर फैलता रहा।लेकिन,इस मेले को राष्ट्रीय फलक पर पहचान दिलाने व राष्ट्रीय स्तर के मीडिया की नजरों में लाने का पहला श्रेय *तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद* को जाता है।उनका 15अप्रैल 1991 को तत्कालीन लघु हस्तकरघा मंत्री(बिहार सरकार) वीरेंद्र कुमार सिंह के आग्रह पर यहाँ ऐतिहासिक आगमन हुआ।इस धूल-धुसरित पिछड़े इलाके में मुख्यमंत्री का उड़नखटोला उतरना उस समय एक मायने रखता था। मजे की बात तो यह कि खुद लालू प्रसाद भी यहाँ बहने वाले दूध की नदी को देख आश्चर्यचकित रह गये। उसी समय उनकी पैनी नजर यहाँ बोर्ड में लिखे शब्दों पर पड़ा। *चरवाहा संघ* !अनायास ही उसने पूछ डाला कि ये चरवाहा संघ क्या होता है? उद्देश्य को जान श्री लालू प्रसाद के दिल में भी इस स्थल के प्रति दिलचस्पी बढ़ सी गई और उनके मन में भी कुछ नये विचार तत्काल ही पनप सा गया।

दर्जनों नेताओं का हुआ अब तक आगमन

पूरे भारत में पहला “चरवाहा संघ” को यहाँ चलते देख उन्होंने पटना लौटते ही, बिहार के चरवाहों के बच्चों को पढ़ने के लिये *चरवाहा विद्यालय* की स्थापना करने की घोषणा कर दिया। चरवाहा विद्यालय भले ही अपने शैशवकाल में ही अकाल मृत्यु का शिकार हो गया, परन्तु पचरासी स्थल की प्रसिद्धि, यहाँ की जानकारी के बारे में तब तक सारी दुनिया रू-ब-रू हो चुकी थी।16अप्रैल 1992 को पुनः तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद अपने पीछे ढ़ेर सारी मीडिया की फौज को लेकर यहाँ तक पहुँचे।16अप्रैल 1994 को फिर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद, शिक्षा मंत्री जयप्रकाश नारायण, सांसद रंजन प्र० यादव का आगमन हुआ।शायद तब तक यह चरवाहाधाम पचरासी पूरे भारत में अपना पहचान बना बैठा था। फिर तो राजनेताओं, विभिन्न मीडिया हस्तियों तथा शोधार्थियों का यहाँ आने का सिलसिला सा चल पड़ा।लालू प्रसाद के बाद 16अप्रैल 1997 को पूर्णियां के तत्कालीन सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव, राजद संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष डा० रमेन्द्र कुमार रवि,15अप्रैल 2007को तत्कालीन मुख्यमंत्री नितीश कुमार, पर्यटन एवं पथ निर्माण मंत्री नन्दकिशोर यादव, उर्जा मंत्री बिजेन्द्र नारायण यादव, पंचायती राज मंत्री नरेन्द्र नारायण यादव,रूपौली विधायक बीमा भारती, रेणु कुमारी कुशवाहा, नरेन्द्र कुमार नीरज उर्फ गोपाल मंडल, भागलपुर जिला परिषद अध्यक्ष सबिता देवी का एक साथ पदार्पण हुआ।

मुख्यमंत्री नितीश कुमार भी अपनी झोली में ढेर सारी सौगातें इस क्षेत्र की जनता के लिये लाये थे। वैसा सौगात जो इस क्षेत्र की जनता का चिरप्रतीक्षित मांग भी था।उस समय मुख्यमंत्री ने कहा कि,इस स्थल को गर बिहार सरकार पर्यटन स्थल का दर्जा नहीं दिलवाती है तो लाखों पशुपालक श्रद्धालुओं के आस्था को ठेस पहुँचेगी।मुख्यमंत्री नितीश कुमार द्वारा कोसी पर बने पुल का शिलान्यास कर उसका नाम *बाबा विशुराउत सेतू*रखा गया और पचरासी स्थल में *राजकीय मेला* का दर्जा दिया । जो कि  निश्चित रूप से बाबा विशुराउत के नाम को और भी प्रसिद्धि दिलाने में महती भूमिका निभा रहा है।

बाबा विशुराउत महाविद्यालय भी कोशी के पिछड़ा व दियारा इलाके में स्थापित बाबा विशुराउत महाविद्यालय भी एक प्रकाश स्तंभ के मानिन्द खड़ा होकर रूढ़िवाद अशिक्षा  को जड़ से खत्म करने के लिये निरंतर प्रयासरत बना हुआ है। बाबा के नाम पर स्थापित इस महाविद्यालय से पास कर विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्ति भी चरवाहाधाम पचरासी के ऋणी हैं, जो इस स्थल के विकास में भी महती भूमिका निभा रहे हैं।

(लेखक संजय कुमार सुमन विभिन्न विधाओं पर पिछले 30 वर्षों से अनवरत लिखते रहे हैं।राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दर्जनों सम्मान से सम्मानित हैं)

Comments (0)
Add Comment