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अंग समागम में रंगकर्मी शीतांशु अरुण का होगा सार्वजनिक अभिनंदन

सीतांशु अरुण बोले, बढ़ रही है रंगकर्म की चुनौतियां

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हेमलता म्हस्के
समाजसेविका सह साहित्यकार

रंगकर्मी शीतांशु अरुण पिछले कई दशकों से रंगकर्म में जुटे हुए हैं। विश्व मातृभाषा दिवस पर भागलपुर में अंग जन गण, अंग मदद फाउंडेशन और अंगिका सभा फाउंडेशन द्वारा आयोजित होने वाले राष्ट्रीय अंग समागम में उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया जा रहा है। यह समागम भारत के जाने माने रंगकर्मी और नाटककार वीरेंद्र नारायण के जन्मशती वर्ष पर उनकी याद में किया जा रहा है।
इस मौके पर उनसे हुई बातचीत के कुछ प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं।

1. नाटक और साहित्य लेखन के क्षेत्र में कब और कैसे आएं?
मैं श्री कृष्ण क्लब, बरारी ,भागलपुर के संस्था से जुड़ा हुआ रहने के कारण रंगमंच का कलाकार हूं। मैंने 1967 से रंगमंच की यात्रा शुरू की है।नाटक लिखने की प्रेरणा मुझे पिताजी स्व॰ अशर्फी रॉय से मिली है जिसमें गति लाने के लिए संस्था के ही वरीय रंगकर्मी डॉ देवेन्द्र प्रसाद यादव ने जोर दिया है। मेरा पहला नाटक सुरेश प्रकाशन द्वारा वर्ष 1976 में *मजबूर इन्सान* प्रकाशित हुआ।बाद में उर्मिला प्रकाशन से लगातार दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हुई।नाटक के अतिरिक्त मैं किसी और रचना के बारे में सोचा भी नहीं था।

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जब मेरा परिचय चित्रशाला के हरिकुंज जी से हुई तो उन्होंने मेरा परिचय डॉ अमरेन्द्र से कराया।इसके बाद तो नाटक के अलावा अन्य विद्या पर लिखने हेतु अभिरुचि बढ़ती गई।नाटक के अतिरिक्त ‌मैं अपने छोटे पुत्र अनुज कुमार रॉय जो एक फिल्म निर्देशक है के कहने पर पटकथा ” मगरुरियत एवं आत्मग्लानि” लिखा जिसपर फिल्म निर्माण किया गया।पुनः उसके द्वारा लोककथा महुआ घटवारिन पर लिखने के लिए कहा गया तो मैं सोचने लगा। वैसे इस कथा को मैं अपने पिता जी से सुना था।उनके अनुसार ही‌ 1978 में नृत्य नाटिका तैयार की थी किन्तु मेरे पिताजी संतुष्ट नहीं हुए थे तो नाटक लिखने कहे थे। समयाभाव के कारण मैं उनकी अभिलाषा को पूर्ण नहीं कर पाया था।
इस बात की चर्चा जब मैंने डॉ अमरेन्द्र से की तो उनका कहना हुआ कि इस विषय पर लिखने के पहले आपको क्षेत्र भ्रमण करना चाहिए। उनकी बातों को मानते हुए टीम गठित कर दौरा शुरू किया । लोगों से कहानी सुनी तब कलमबद्ध किया।डॉ अमरेन्द्र के प्रेरणा से मैंने उपन्यास एवं कहानी, लघुकथा लिखना प्रारम्भ किया हूं।

2 नाटक के क्षेत्र में कैसी-कैसी चुनौतियां सामने आती है?
नाटक के क्षेत्र में चुनौतियों का सामना पहले भी कर रहा था, आज भी कर रहा हूं। बर्तमान समय में तो इसके हर मार्ग पर कांटे ही बिछे मिलते हैं। आर्थिक रुप से संपन्न लोग इससे अक्सर दूर ही रहते हैं। रंगमंच के कलाकार अधिकतर कमजोर वर्ग से ही आते हैं, फिर भी अपने प्रयास से इसे व्यसाय से जोड़ने का भरपूर प्रयास किया लेकिन इन्टरनेट युग ने इनके अरमां पर पानी फेर दिया है।
नाटक के कलाकारों आर्थिक तंगी के कारण अन्य‌ व्यवसाय से जुड़ना पड़ गया है, जिसके कारण प्रस्तुति के लिए नि: शुल्क काम नहीं करना उसके लिए मजबूरी बन जाती है।
नाटक की तैयारी के समय से ही चुनौतियों का सामना शुरू हो जाता है,पहले अच्छे नाटकों का चयन करना ही चुनौती होती है, दूसरी चुनौती कलाकारों का चयन करना।यदि दोनों हो जाता है तो सबसे बड़ी समस्या हो जाती है प्रस्तुति देने के लिए स्थान की,जो सहज रुप से उपलब्ध नहीं हो पाती है। ग्रामीण क्षेत्र में‌ भी अब खाली स्थान का अभाव हो चुका है। शहरों में भी जहां प्रेक्षा गृह बना हुआ है उसका शुल्क भी इतना है कि सामान्य संस्था उस‌ स्थान पर प्रस्तुति के लिए साहस नहीं जुटा पाती है क्योंकि इस मोबाइल युग में दर्शकों का अभाव है। सबसे महत्त्वपूर्ण है रंगकर्मियों के लिए कोई नि:शुल्क प्रेक्षा गृह का नहीं होना। सरकार का भी इस ओर कोई ध्यान नहीं है।

3आज के साहित्यकारों के साहित्य को कैसे देखते हैं?
वर्तमान में साहित्यकारों की होड़ में गुणवत्ता पूर्ण साहित्य सृजन पर विराम लगा दिखाई पड़ता है। यदि कुछ साहित्यकारों को छोड़ दिया जाय तो पुस्तक पढ़ने की इच्छा नहीं होती है। हमको लगता है इसी कारण प्रकाशक भी उदासीन होकर गुणवत्तापूर्ण पुस्तकों के अलावे अन्य किसी भी पुस्तकों पर ब्यय नहीं करना चाहते हैं।वर्तमान समय में अधिक से अधिक पुस्तकों को छपवाने के लिए लेखकों में होड़ लगी हुई है।प्रकाशक भी जैसी भी पुस्तक हो लेखकों से पैसे वसूल कर छाप देते हैं। यहां सोचा जा सकता है ऐसे लेखकों के पुस्तकों की क्या रुप रेखा रही होंगी।जो लेखक पाठकों को बांधने में सक्षम नहीं होंगे वैसे लेखक की पुस्तक भला लोग खरीद कर क्यों पढ़ेंगे।
4.किताबों और पत्र पत्रिकाओं का दौर खत्म हो गया?
हां इसमें कमी जरुर आईं हैं। पत्रिकाओं का दौर कभी खत्म होने वाला नहीं है। हां लोगों में धैर्य, सहनशीलता एवं इच्छाशक्ति में कमी हुई है जिस कारण बहुत सारे लाइब्रेरियां मृत्यु के कगार पर है तो दूसरी ओर इन्टरनेट युक्त लाइब्रेरियां उत्थान पर जाता दिखाई दे रहा है।
यह सच है कि शीघ्र ही निर्णय पर पहूंचने के लिए लोग एक बात भुलते जा रहें हैं कि पुस्तकों को पढ़ने के क्रम में किसी आवश्यक पंक्तियों को रेखांकित किया जा सकता है जो जरुरत पड़ने पर तत्काल पढ़ा जा सकता है लेकिन आनलाईन पढ़ने में यह कभी संभव नहीं हो सकता है।यदि पत्र पत्रिकाओं का गुणवत्तापूर्ण प्रकाशन हो जो पाठकों को अपनी ओर खींच सके तो पुनः: ये सोचने का अवसर नहीं मिल पायेगा कि किताबों और पत्र-पत्रिकाओं का दौर खत्म हो रहा है।

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