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प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में महात्मा गांधी का अमूल्य योगदान

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नारायण भाई भट्टाचार्य
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आधुनिक भारतीय इतिहास में महात्मा गाँधी उन महत्वपूर्ण हस्तियों में से एक थे, जिन्होंने राजनीति, दर्शन और सामाजिक सुधार में महत्वपूर्ण और अद्भुत योगदान दिया। इन सबके साथ गाँधी जी को प्राकृतिक चिकित्सा का भी बहुत गहरा ज्ञान था। उन्होंने बड़े पैमाने पर मानव स्वास्थ्य, मानव रोगों और उनके इलाज पर लिखा है और अपने प्राकृतिक चिकित्सा के ज्ञान का प्रयोग भी किया है। गाँधी जी का विचार था कि जिस व्यक्ति के पास स्वस्थ शरीर, स्वस्थ दिमाग और स्वस्थ भावनाएं होती हैं, वही स्वस्थ व्यक्ति होता है। उनका विचार था कि स्वस्थ रहने के लिए केवल शारीरिक शक्ति आवश्यक नहीं है। एक स्वस्थ व्यक्ति को अपने शरीर के बारे में पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। गाँधी जी ने मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के बीच के संबंधों को समझाया। गाँधी जी का विचार था कि स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ पाचन आवश्यक है। इस प्रकार, महात्मा गाँधी राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक विचारों के साथ अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी विचारों एवं प्रयोगों के कारण भी अपना एक विशेष महत्व रखते हैं।
आधुनिक भारत में प्राकृतिक चिकित्सा को बढ़ावा देने में महात्मा गांधी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा को प्रचलित करने के लिए उरली काँचन में एक केंद्र की स्थापना की। उन्होंने स्वयं और अपने परिवार के सदस्यों का भी निसर्ग उपचार करके उदाहरण पेश किया । गांधी जी के मन में रोगियों की सेवा सुश्रुषा करने और गरीबों की सेवा करने की उत्कंठा हमेशा बनी रहती थी। कुदरत के निकट रहकर बिताए जाने वाले सादे और सरल जीवन की बहुत कद्र करते थे। ऐसा सादा सरल जीवन जी कर ही उन्होंने स्वास्थ्य के सादे नियम बनाए थे और उन पर अमल भी किया था। शाकाहार और जलाहार में उनकी आस्था थी। इसी कारण से उन्होंने आहार संबंधी अनेक सुधार किए, जिनका आधार व्यक्तिगत प्रयोगों से प्राप्त परिणामों पर था। डॉक्टर लुई कुनै ने प्राकृतिक उपचार पर जो कुछ लिखा है, उससे महात्मा गांधी बहुत अधिक प्रभावित हुए थे। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जबसे लुई कुनै की पुस्तक न्यू साइंस ऑफ हीलिंग* और एडॉल्फ जस्ट की पुस्तक “रिटर्न टू नेचर” का अध्ययन किया तो वे प्राकृतिक चिकित्सा के समर्पित हिमायती बन गए।

पूर्व प्रधानमंत्री और निसर्ग उपचार के वकालत करने वाले मोरारजी देसाई के मुताबिक मनुष्य का शरीर एक अद्भुत और संपूर्ण यंत्र है जब यह बिगड़ जाता है तो बिना किसी दवा के अपने को सुधार लेता है। बस, उसे ऐसा करने का मौका दिया जाए। अगर हम अपनी खाने पीने की आदतों में संयम का पालन नहीं करते या अगर हमारा मन आवेश भावना या चिंता से क्षुब्ध हो जाता है तो हमारा शरीर अंदर की सारी गंदगी को बाहर नहीं निकाल सकता और शरीर के जिस भाग में गंदगी बनी रहती है, उसमें अनेक प्रकार के जहर पैदा होते हैं यह जहर ही उन लक्षणों को जन्म देते हैं जिन्हें हम रोग कहते हैं। वास्तव में रोग शरीर का अपने भीतर के जहरों से मुक्त होने का प्रयत्न ही है। अगर उपवास करके एनिया द्वारा आंतें साफ करके कटि स्नान, घर्षण स्नान आदि विविध स्नान करके और शरीर के विभिन्न अंगों की मालिश करके भीतर के जहरों से मुक्त होने की इस प्रक्रिया में हम अपने शरीर की सहायता करें तो वह फिर से पूर्ण स्वस्थ हो सकता है।
गांधी जी की नजर में वास्तव में यही प्राकृतिक उपचार है जिसे उन्होंने जीवन भर प्रयोग किया और प्रचार किया। *कुदरती उपचार* पुस्तक के संपादक भारतन कुमारप्पा के मुताबिक गांधी जी चाहते थे कि आहार के संबंध में मनुष्य प्रकृति के नियमों का पालन करे, शुद्ध और ताजी हवा का सेवन करे, नियमित कसरत करे, स्वच्छ वातावरण में रहे और अपना हृदय शुद्ध रखे। लेकिन आज ऐसा करने की बजाय मनुष्य को आधुनिक चिकित्सा पद्धति के कारण जी भरकर विषय भोग में लीन रहने का, स्वास्थ्य और सदाचार का हर नियम तोड़ने का और उसके बाद केवल व्यापार के लिए तैयार की जाने वाली दवाइयां के जरिए शरीर का इलाज करने का प्रलोभन मिलता है। इन सब के प्रति मन में विद्रोह की भावना होने के कारण गांधी जी ने अपने लिए दवाइयों के उपयोग के बिना रोगों पर विजय पाने का मार्ग खोजने का प्रयत्न किया। इसके सिवा आज की चिकित्सा पद्धति रोग को केवल शरीर से संबंध रखने वाली चीज मानकर उसका उपचार करना चाहती है लेकिन गांधी जी तो मनुष्य को उसके संपूर्ण और समग्र रूप में देखते थे इसलिए वे अनुभव से ऐसा मानते थे कि शरीर की बीमारी खासतौर से मानसिक या आध्यात्मिक कारणों से होती है और इसका स्थाई उपचार केवल तभी हो सकता है जब जीवन के प्रति मनुष्य का संपूर्ण दृष्टिकोण ही बदल जाए इसलिए उनकी राय में शरीर के रोगों का उपचार खासतौर से आत्मा के क्षेत्र में, ब्रह्मचर्य द्वारा सिद्ध होने वाले आत्म संयम और आत्म संयम में, स्वास्थ्य के विषय में प्रकृति के नियमों के ज्ञान पूर्ण पालन में और स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन के लिए अनुकूल भौतिक और सामाजिक वातावरण निर्माण करने में खोजा जाना चाहिए। इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा की गांधी जी की कल्पना उस अर्थ से कहीं अधिक व्यापक है, जो आज उस शब्द से आमतौर पर समझा जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा रोग के हो जाने के बाद केवल उसे मिटाने की पद्धति नहीं है बल्कि प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन बिता कर रोग को पूरी तरह रोकने की कोशिश है । गांधी जी मानते थे कि प्रकृति के नियम वही हैं, जो ईश्वर के नियम हैं। इस दृष्टि से रोग के प्राकृतिक उपचार में केवल मिट्टी, पानी, हवा, धूप उपवासों और ऐसी दूसरी वस्तुओं के उपयोग का ही समावेश नहीं होता बल्कि इससे भी अधिक उसमें *राम नाम* या ईश्वर के कानून के द्वारा हमारे शारीरिक , मानसिक, नैतिक और सामाजिक संपूर्ण जीवन को बदल डालने की बात आती है । इसलिए राम नाम गांधीजी की दृष्टि में केवल ऐसा जादू नहीं है, जो मुंह से बोलने भर से कोई चमत्कार कर दिखाएगा। *राम नाम* जपने का अर्थ है मनुष्य के हृदय का और उसकी जीवन पद्धति का संपूर्ण परिवर्तन, जिससे ईश्वर के साथ उसका मेल सधता है और संपूर्ण जीवन के मूल स्रोत के रूप में ईश्वर से वह ऐसी शक्ति और ऐसा जीवन प्राप्त करता है जो रोगों पर सदा ही विजयी
सिद्ध होते हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा करने वाला चिकित्सक आज रोगी को उसके लिए कोई जड़ी बूटी नहीं बेचता। वह तो अपने रोगी को जीवन जीने का ऐसा तरीका सिखाता है जिससे रोगी अपने घर में रहकर अच्छी तरह जीवन बिता सके और कभी बीमार ही नहीं पड़े। प्राकृतिक चिकित्सक रोगी की खास तरह की बीमारी को खत्म करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता।आम डॉक्टरों में ज्यादातर की इतनी ही दिलचस्पी रहती है कि वह रोगियों के रोग को और उसके लक्षणों को समझ ले और उसका इलाज खोज निकाले और इस तरह सिर्फ रोग संबंधी बातों का ही अभ्यास करें। दूसरी तरफ प्राकृतिक चिकित्सा करने वाले को तंदुरुस्ती के नियमों का अभ्यास करने में ज्यादा दिलचस्पी होती है। जहां आम डॉक्टरों की दिलचस्पी खत्म हो जाती है वहीं प्राकृतिक चिकित्सकों की सच्ची दिलचस्पी शुरू होती है। प्राकृतिक चिकित्सा की पद्धति से रोगी की बीमारी को बिल्कुल मिटा देने के साथ ही उसके लिए एक ऐसी जीवन पद्धति की शुरुआत होती है जिसमें बीमारी के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती है। इस तरह
प्राकृतिक चिकित्सा बेहतर जीवन जीने की एक पद्धति है, रोग मिटाने की पद्धति नहीं।
गांधी स्मारक प्राकृतिक चिकित्सा समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्षों से प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक बनाने में निरंतर सक्रिय लक्ष्मी दास जी कहते हैं कि महात्मा गांधी के पहले भी प्राकृतिक चिकित्सा का कार्य होता था। इस पद्धति के उपयोग का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन यह हकीकत है कि गांधी जी ने इस पद्धति को सरल और सर्वग्राही बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। प्राकृतिक चिकित्सा की इसी खासियत को देखते हुए गांधी जी को लगा कि प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का हर एक व्यक्ति सहज इस्तेमाल कर सकता है इसलिए उन्होंने माना भी और कहा भी कि *अपने डॉक्टर आप बनो।* अन्य किसी भी चिकित्सा पद्धति में विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह कदापि नहीं कह सकता कि आप खुद अपने डॉक्टर बनो। लेकिन गांधी जी यह कह सके क्योंकि उन्हें प्राकृतिक चिकित्सा पर इतना भरोसा था कि प्राकृतिक जीवन पद्धति से जीवन जीने वाला व्यक्ति या तो कभी बीमार नहीं होगा , अगर किसी कारण से बीमार हो भी गया तो पांच तत्व मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि और आकाश के सही इस्तेमाल से वह फिर से अवश्य ठीक हो जाएगा। गांधी जी का प्राकृतिक चिकित्सा में यह विश्वास किन्हीं दूसरों पर किए गए प्रयोगों से या किसी बड़ी अनुसंधानशाला में किए गए प्रयोगों से नहीं बल्कि स्वयं द्वारा अपने ऊपर, अपनी पत्नी के ऊपर और अपने बच्चों पर किए गए सफल उपचार के कारण हुआ था, जिसे जन जन में फैलाने के लिए उन्होंने आजीवन प्रयास किया। महात्मा गांधी ने महा रोग से पीड़ित परचुरे शास्त्री की सेवा सुश्रुषा स्वयं अपने हाथों से की। सरहदी गांधी अब्दुल गफ्फार खान के मलेरिया रोग का इलाज किया। विनोबा भावे के छोटे भाई बालकोवा भावे के पुराने क्षय रोग को भी ठीक किया। बौद्ध धर्म के पंडित धर्मचंद कौशांबी जब अपने जीर्ण और जर्जर शरीर को उपवासों द्वारा छोड़ने पर उतारू हो गए तब गांधी जी ने उनको रोका और उनकी सेवा सुश्रुषा की। इसी तरह उन्होंने घनश्याम दास बिरला, जमनालाल बजाज, कमलनयन बजाज, दमा के रोगी आचार्य नरेंद्र देव और सरदार पटेल आदि के बीमार पड़ने पर प्राकृतिक चिकित्सा की।
गांधी जी ने महाराष्ट्र में पुणे के पास उरली काँचन में यह सोच कर प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र खोला कि गरीब लोग महंगी दवाई नहीं ले सकते और महंगे इलाज नहीं करवा सकते । इस केंद्र की स्थापना के पीछे एक कारण यह भी था कि गांधी जी ऐसा मानते थे कि स्वास्थ्य और आरोग्य विज्ञान के बारे में उन्होंने जीवन भर जो प्रयोग किए हैं, उनका लाभ देश के गरीब लोगों को उठाने का मौका मिले। इसके लिए उन्होंने 23 मार्च 1946 में उरली काँचन में प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र की शुरुआत की। महात्मा गांधी 23 मार्च 1946 को उरली काँचन आए और 30 मार्च 1946 तक रहे। उन्होंने डॉक्टर मेहता, बालकोवा भावे, मणि भाई देसाई, डॉक्टर सुशीला नायर और अन्य शिष्यों की मदद से सैकड़ों रोगियों का उपचार किया। 30 मार्च 1946 को महात्मा गांधी स्वतंत्र भारत के संबंध में ब्रिटिश सरकार के साथ अंतिम वार्ता के लिए दिल्ली के लिए रवाना हुए । महात्मा गांधी ने 1 अप्रैल 1940 को महादेव तात्याबा कांचन जैसे स्थानीय लोगों द्वारा भूमि के रूप में दिए गए दान की मदद से निसर्ग उपचार ग्राम सुधार ट्रस्ट की स्थापना की। मणि भाई के प्रबंधन के तहत टीम ने अच्छे स्वास्थ्य और स्वच्छ तरीकों का प्रचार किया और ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न समस्याओं का अध्ययन किया और ग्रामीण गरीबों के उत्थान के लिए उपयुक्त समाधानों की पहचान की । आश्रम में प्राकृतिक उपचार में गांधी जी द्वारा जारी दिशा निर्देशों का पालन किया गया। पिछले 75 सालों में इस आश्रम में उल्लेखनीय प्रगति की है । जीवन जीने के तरीके के क्षेत्र में अनूठा उदाहरण स्थापित किया है। देश-विदेश के हर एक कोने से लोग यहां आते हैं और पुरानी बीमारियों के प्रबंधन के लिए बगैर दवा समग्र दृष्टिकोण से अवगत होते हैं।

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