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काली पूजा:-क्या है ऐतिहासिक औऱ पौराणिक कथा

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काली माता को पापियों का संहार करने वाली माता के रूप में जाना जाता है। जब भी हम माँ काली के बारे में सोचते हैं तो हमारे दिमाग में एक ऐसी तस्वीर उभरती है जो भयंकर और हिंसक है। देवी काली की छवि में भगवान शिव की छाती पर उनका पैर दिखाया गया है, कटे हुए सिरों और हाथों की माला पहने हुए, एक हाथ में तलवार और दूसरे में एक कटा हुआ सिर और धुँआधार आँखों के साथ लटकती लाल जीभ को दर्शाया गया है।
वह देवी दुर्गा का विकराल रूप हैं, जिन्हें नारी शक्ति और साहस के रूप में स्वीकार किया जाता है, इसलिए उन्हें नारी शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाली देवी कहना गलत नहीं होगा।
हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार काली माता का पूजन करने से भक्तों के जीवन में सभी प्रकार के दुखों का अंत होता है। आपको बता दें कि माता काली की पूजा से कुंडली में विराजमान राहु और केतु भी शांत हो जाते हैं।                           काली’ शब्द संस्कृत शब्द ‘काल’ से लिया गया है, जिसका अर्थ समय और कालापन दोनों है। संयुक्त अर्थ यह दर्शाता है कि वह गहन अवधारणाओं का अवतार है। इनमें जीवन का प्राणमय नृत्य और समय के अनंत चक्र शामिल हैं जो ब्रह्मांडीय शून्य के गर्भ में व्याप्त हैं।
         माता काली को विनाश की देवी भी माना जाता है। क्योंकि वे संसार से बुराई और अहंकार को नष्ट करती है। माता काली न्याय के लिए राक्षसों से लड़ती है। मां काली को दुर्गा का ही आक्रामक रूप माना जाता है। काली पूजा की जड़ें प्राचीन हिंदू पौराणिक कथाओं में मिलती हैं, जहां देवी काली राक्षसों से लड़ने और परमात्मा की रक्षा करने के लिए एक दुर्जेय शक्ति के रूप में उभरती हैं। काली पूजा से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध कथाएं प्रचलित है जिनमें से एक है, करीब 16वीं शताब्दी के आस पास प्रसिद्ध ऋषि कृष्णानंद अगमवगीशा ने सबसे पहले मां काली की अराधना और पूजा शुरू की। इसके बाद 18वीं शताब्दी के आस पास बंगाल के नवद्वीप के राजा कृष्णचंद्र ने काली पूजी को व्यापक रूप दिया और धूमधाम से हर साल काली पूजा करने की प्रथा आरंभ की।
काली पूजा को व्यापक लोकप्रियता 19वीं शताब्दी में प्राप्त हुई। उस दौरान मां काली के परम भक्त संत श्री रामकृष्ण ने बंगाली समुदाय के लोगों के साथ मां काली की अराधना की और काली पूजा की शुरुआत की। श्री रामकृष्ण को मां काली के परम साधक के रूप में जाना जाता है। उनके काली पूजा शुरु करने से आस पास के इलाके के धनी ज़मींदारों ने इस उत्सव को बड़े पैमाने पर मनाने की प्रथा की शुरुआत की। दुर्गा पूजा के साथ , काली पूजा बंगाल के तमलुक, बारासात, नैहाटी, बैरकपुर, धुपगुरी, दिनहाटा, तपशिताला इलाके में आयोजित किया जाने वाला सबसे बड़ा त्योहार है। हालांकि आज के समय में बंगाली समुदाय के लोग दुनिया के जिस भी कोने में बसे वहां काली पूजा का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। यह बिहार के भागलपुर में भी काफी मशहूर उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
हिंदू धर्म में सबसे अधिक पूजनीय देवी-देवताओं में से एक काली हैं। वह उग्र, देखभाल करने वाली और जीत का प्रतीक है। काली पूजा व्यक्ति के नकारात्मक आत्म और आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति में बाधा डालने वाली सभी प्रकार की अनैतिकता को मिटाने के लिए की जाती है। देवी काली की पूजा करने से जीवन में सुख, समृद्धि और सकारात्मकता बनी रहती है।
 क्यों करते हैं काली पूजा?
राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तब भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो गया। इसी की याद में उनके शांत रूप लक्ष्मी की पूजा की शुरुआत हुई जबकि इसी रात इनके रौद्ररूप काली की पूजा का विधान भी कुछ राज्यों में है।
काली पूजा का महत्व क्या है?
दुष्‍टों और पापियों का संहार करने के लिए माता दुर्गा ने ही मां काली के रूप में अवतार लिया था। माना जाता है कि मां काली के पूजन से जीवन के सभी दुखों का अंत हो जाता है। शत्रुओं का नाश हो जाता है। कहा जाता है कि मां काली का पूजन करने से जन्‍मकुंडली में बैठे राहू और केतु भी शांत हो जाते हैं। अधिकतर जगह पर तंत्र साधना के लिए मां काली की उपासना की जाती है।तंत्र शास्त्र के अनुसार महाविद्याओं में देवी कालिका सर्वोपरि है। काली शब्द हिन्दी के शब्द काल से उत्पन्न हुआ है।जिसके अर्थ हैं समय, काला रंग, मृत्यु देव या मृत्यु। तंत्र के साधक महाकाली की साधना को सर्वाधिक प्रभावशाली मानते हैं और यह हर कार्य का तुरंत परिणाम देती है। साधना को सही तरीके से करने से साधकों को अष्ट सिद्धि प्राप्त होती है।
(लेखक संजय कुमार सुमन लगातार विभिन्न विधाओं पर लिखते रहे हैं।राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दर्जनों सम्मानों से सम्मानित हैं।)
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