गंगा की तबाही से देश की आधी से अधिक आबादी होगी तबाह
गंगोत्री से गंगा सागर तक गंगा को बचाने चलेगा जन आंदोलन
गंगा और हिमालय को वैश्विक विरासत बताते हुए इन्हें बचाने की एक लड़ाई अब इन पर सदियों से आश्रित समुदायों द्वारा शुरू होने वाली है। इस संबंध में तीन दिनों का एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन 28 , 29 और 30 नवंबर को बिहार के मुजफ्फरपुर में होने वाला है। इस सम्मेलन में खासतौर से गंगा बेसिन पर आए संकट के कारण तबाह होने वाले समुदायों की भागीदारी बढ़ चढ़ कर होने वाली है। यह सम्मेलन तीन दशक पहले गंगा को जमींदारी से मुक्त कराने वाले गंगा मुक्ति आंदोलन और उनके समर्थन में आए अनेक संगठनों की ओर से आयोजित किया जा रहा है, जिसे मछुआरों , गंगोटा और किसानों का समर्थन मिल रहा है। सम्मेलन के बाद गंगा और उनकी सहायक नदियों को बचाने के लिए मछुआरों, किसानों और गंगोताओं के एक साझा आंदोलन की तैयारी अभी से शुरू हो गई है। इसी के साथ पिछले कई दशकों से गंगा और उनकी सहायक नदियों की बिगड़ती हालत और समय समय पर सफाई के लिए संचालित विभिन्न सरकारी योजनाओं और उनके हश्रों पर निरंतर शोध करने वाले शोधार्थी, समाजसेवक, पत्रकार और राजनेता भी इस सम्मेलन की तैयारी में गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं। गंगा सहित सभी नदियों को बचाने के लिए ग्राम से राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र जन आंदोलन चलाने की रूपरेखा बनाने पर भी विचार किया जा रहा है।
करीब चार दशक पहले शुरू हुआ गंगा मुक्ति आंदोलन के संस्थापक अनिल प्रकाश का कहना है कि गंगा को साफ करने की कोई जरूरत नहीं है उसमें खुद ही अपने जल को स्वच्छ रखने की क्षमता है। बस उसे गंदा करने पर मुकम्मल रोक लगनी चाहिए। लेकिन यहां सब कुछ उल्टा हो रहा है। गंगा को अविरल बहने देने के रास्ते में अनेक रुकावटें खड़ी कर दी गई हैं। गंगा को गंदा करने के साथ साथ उसे संसाधन मान कर लूट खसोट का अंतहीन धंधा भी चल रहा है। इस कारण गंगा और उसकी सहायक नदियां गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक जिस तरह से मैली और विस्फोटक हो रही है, जिस तरह से उस पर कारपोरेट की गिद्ध की नजर लग गई है और नदियों के किनारे पर्यटन और मनोरंजन के नाम पर जो ढांचे विकसित किए जा रहे है उसके दूरगामी दुष्परिणामों को लेकर गंगा पर सदियों से आश्रित समुदायों के लोग गहरी चिंता में पड़ गए हैं। वे गंगा की बिगड़ती हालत के कारण उजड़ते चले जा रहे हैं। अपनी जड़ों से भी उखड़ते जा रहे हैं।
गंगा को लाखों करोड़ों लोगों की आस्था का सवाल बता कर जिस तरह से धार्मिक आवरण देकर उसका व्यावसायिक दोहन किया जा रहा है उससे गंगा को पहले वाली स्थिति में बहाल करना काफी मुश्किल हो गया है। गंगा और उसकी सहायक नदियां धर्म, जाति, लिंग और भाषा के भेदभाव से ऊपर उठ कर सभी समुदायों को शुरू से अपनाती आई है। अब नए विकास के विकसित हो रहे ताने बाने के कारण सदियों से चली आ रही सभ्यता, संस्कृति और परंपरा नष्ट हो रही है। गंगा के किनारे का इतिहास, भूगोल और पर्यावरण नष्ट हो रहा है। गंगा के किनारे तीर्थ स्थलों के साथ विभिन्न संगम और ऋषि मुनियों और राजे महाराजे के किला और स्मारक भी नष्ट हो रहे हैं। और जिस पवित्रता के कारण गंगा की वैश्विक और शाश्वत ख्याति रही है वह भी पूरी तरह खत्म हो रही है। सरकारी योजनाओं से गंगा और उसकी सहायक नदियों की पारंपरिक स्थिति बहाल नहीं हो रही है और पवित्रता भी पूरी तरह से नष्ट हो गई है। उत्तराखंड के बाद जैसे गंगा उत्तर प्रदेश में आती है तो उसकी तबाही का दौर शुरू हो जाता है।
उत्तर प्रदेश में वाराणसी प्रशासन को अभी हाल ही में राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने गंगा के पास बहने वाली असि और वरुणा नदियों के किनारे बोर्ड लगा कर लोगों को यह सचेत करने के लिए कहा है कि इन नदियों का जल नहाने के लिए भी उपयुक्त नहीं रह गया है। उत्तर प्रदेश और बिहार की सभी छोटी छोटी नदियों का तेजी से अतिक्रमण हो रहा है और इस पर स्थानीय प्रशासन रोक लगाने में पूरी तरह विफल हो गया है। अधिकरण ने इसके लिए कड़ी फटकार लगाई है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है इसके पहले भी हिदायतें दी गईं लेकिन स्थानीय प्रशासन के कान पर जू तक नहीं रेंगती।
कमोवेश यही हाल गंगा के किनारे के सभी तीर्थ स्थलों का भी है। इस बारे में समय समय पर निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने सरकार सहित सभी स्थानीय प्रशासनों को फटकार लगाई है। नसीहतें दी हैं लेकिन इसका कोई असर नहीं पड़ा। गंगा की ज्यादातर सहायक नदियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण के मुताबिक उत्तर प्रदेश के 326 नालों में से 247 नालों का पानी बिना शोधन के ही गंगा और उसकी सहायक नदियों में सीधे गिर रहा है । उत्तर प्रदेश में गंगा किनारे के 16 शहरों में 41 एसपीटी में से 6 तो काम ही नहीं कर रहा है। इसमें कोई भी नियम के अनुकूल नहीं है। एक को छोड़कर सभी नियम तोड़कर बह रहे हैं। अधिकरण के मुताबिक प्रयागराज में गंगा का जल अब आचमन के लायक भी नहीं रह गया है। प्रयागराज जिले में 25 नालों का पानी गंगा में और 15 यमुना नदी में जा रहा है। उत्तराखंड के हरिद्वार का भी कमोवेश यही हाल है। फरक्का बांध और थर्मल पावर के कारण बिहार, झारखंड और बंगाल के स्थानीय लोगों के लिए उनके इलाके नरक से भी बदतर हो गए हैं। उनकी खेती की जमीन बर्बाद हो रही है। मछलियों का आना थम गया है। गंगा के बीच-बीच में द्वीप जैसे बन गए हैं। मछुआरे,गंगोटा और अन्य समुदाय के किसान भारी संख्या में विस्थापित हो रहे हैं। यही हाल गंगा और उसकी सहायक नदियों का बरकरार रहा तो देश की आधी से अधिक आबादी के सामने आजीविका और सेहत पर संकट आ जाएगा। इसलिए सरकारों के भरोसे रहने का अब समय नहीं रह गया है। अब लोगों को खुद ही गंगा को बचाने के लिए आगे आना होगा।